बेबस कच्ची ईंट
बुधना बस में बैठा सोच रहा था,"इस बार तीन जने मजदूरी करने जा रहे हैं। पिछ्ले साल अकेले गया था। काम करने में मन भी नहीं लगता था। कमाई भी कम होती थी। साल भर परदेश में खून-पसीना एक करने के बाद इतनी कमाई भी नहीं कर पाया कि चार महीने अपने गांव में,अपनी बीवी - बाल-बच्चों के साथ चैन से रह पाता! खैर, इस बार अपनी बेटी रनिया को भी साथ ले जा रहा हूं और अपनी पत्नी शुकरी को भी। रनिया है तो सिर्फ़ चोदह बरस की, लेकिन लगती है अट्ठारह से कम की नहीं। उसे भी शुकरी जितनी ही मजदूरी मिलेगी। बस, एक बरस ईंट भटठे में मजदूरी करनी है, फ़िर हम तीनों इतनी कमाई कर लेंगे कि अपनी खेती पटरी पर आ जाएगी। साहूकार का ॠण चुकता हो जाएगा। एक जोड़ी बैल खरीद लूंगा। उसके गले की घंटियां टुन-टुन-टुन हमेशा बजा करेंगी। रनिया की शादी भी धूमधाम से होगी।
बुधना के सोचने का क्रम तब टूटा, जब बस ने अचानक हिचकोले खाए और उसका सिर सामने की सीट से टकरा गया। वह अपना सिर सहला रहा था कि शुकरी ने उससे कहा,"रनिया को गोद में बैठा लो।" बुधना ने अपनी बेटी रनिया को अपनी गोद में बैठा लिया।
बस में स्त्री पुरुष जानवरों की तरह ठूंसे हुए थे। सिर्फ़ मजदूर सप्लायर मगंतू एक सीट पर आराम से बैठा बीड़ी पी रहा था। वैसे, इस बस में बैठ कर यात्रा करने के लिए इन मजदूरों ने न जाने कितने दुख झेले हैं।
डेमना ने अपनी सारी जमीन गिरवी रख दी है। अब पांच साल तक मुखिया जी उसकी जमीन जोतेगें। डेमना जब कभी गांव आएगा तो अपनी जमीन पर भी मजदूरी करेगा। हो सकता उसे बेगारी भी करनी पड़े।
मगंरा अपनी आठ बरस की बेटी को श्रम अधिकारी के यंहा छोड़ आया है। आठ बरस की टुलिया श्रम अधिकारी के घर बर्तन मांजेगी, घर की सफ़ाई और पोछा करेगी। मेम साहब के पैर दबाएगी और उनकी लाडली का
थैला ढो कर स्कूल बस रुकने की जगह तक रोज पहुंचाया करेगी।
डबरू ने अपने प्रखंड की महिला विकास पदाधिकारी का अहसान लिया है। उसने अपनी चौदह वर्षीया बेटी छमिया को उनकी सेवा में लगा दिया है। डबरू को बार-बार महिला विकास पदाधिकारी के पति की लाल डोरियों से युक्त आंखें याद आ जाती है। उसे उसकी बातें भी याद आ जाती है," डबरू, जब तक तुम अपने गांव लौटोगे तुम्हारी बेटी जवान हो चुकी होगी।" बस में बैठा-बैठा डबरू अपनी आंखें पोछ रहा है। उसे अपनी बड़ी बेटी, बिछिया की पानी में तैरती लाश की भी बार-बार याद आ जा रही है। दो वर्ष पूर्व दारोगा जी ने दया कर डबरू का नाम चोर की लिस्ट से काट दिया था और उसे असम जाने के लिए तीन सौ रूपए भी दिये थे। डबरू जब असम से छ्ह सौ रूपए कमा कर लौटा था तो पाया कि बिछिया की कमाई उसके पेट में बढ़ने लगी थी और एक दिन बिछिया ने कुएं में छ्लांग लगा दी थी………इसी प्रकार बस में बैठे सभी स्त्री-पुरुष मजदूरों की अपनी-अपनी स्मृति में खट्टी- खट्टी कहानियां हैं.
बुधना ने अपनी बगल में बैठे जतरु से पूछा, "पिछ्ले साल कितने की कमाई की ?"
"पिछ्ले साल मैं बीमार पड़ गया। उलटे मेरे ऊपर मालिक का आठ सौ रुपया गिर गया। अपनी पत्नी सधुनी को मालिक पास ही छोड़ आया। अब अपनी जमीन बेचकर आठ सौ का इंतजाम कर लिया है। इस बार सधुनी के साथ गांव लौटूंगा………"
जतरु यह बात छिपा गया कि ईंट भट्टे के मालिक ने उसकी पत्नी को आठ सौ रुपए के बदले में बंधक रख लिया है। बुधना को जतरु का चक्कर समझ में नहीं आया।
बस ने करीब पांच सौ किलोमीटर की यात्रा तय कर ली थी। सारे मजदूर कल्याण बाबू के ईंट भट्टे में पहुंच गए, ईंट पकाने या स्वयं को, ईश्वर जाने! यह ईंट भट्ठा भी अन्य ईंट भट्ठों की तरह एक निर्जन स्थान में था। यहीं मजदूरों के लिए बांस-फूंस की कई झोपड़ियां बनी थीं। झोपड़ियों से कुछ दूर दक्षिण में भट्ठे की चिमनी थी। भट्ठे से कुछ दूर पूरब की तरफ कल्याण बाबू ने अपने रहने के लिए दो कमरों वाला एक खपरैल का मकान बना रखा था। मजदूर उनके इस मकान को हवेली कहा करते थे।
मगतू सप्लायर ने सभी मजदूरों को लाईन में खड़ा करवाया और कल्याण बाबू से कहा," सरकार इस बार आपके मन मुताबिक मजदूर आया हूं।"
कल्याण बाबू एक ऊंचे स्थान पर खड़े हो गए। एक-एक कर मजदूर उनके सामने से गुजरने लगे। जब बूढ़ा डेमना उनके सामने से गुजरा तो वे चींख पड़े, "साला कैसा सप्लायर है रे ? इस मरियल को क्यों लाया ? मेरे ईंट भट्टे को सेवाश्रम समझ लिया है क्या ? अरे मंगतुआ, इस बुढ़वा के घर में कोई जवान बहू-बेटी नहीं है क्या ? इस मरियल को वापस ले जाना।"
मंगतू सप्लायर ने तुरंत कहा,"सरकार काम में ठीक है, नहीं तो आपके भट्ठे में इसे क्यों लाता ?"
कल्याण बाबू भड़क उठे, "तेरी नजर मेरी नजर से तेज है क्या ? कह दिया न इस मरियल को अपने साथ वापस लेते जाना। साला, बूढ़े बैल को ले कर हम क्या करेंगे?"
मंगतू तो कल्याण बाबू की बात सुन कर चुप हो गया, लेकिन ढेमना ने लपक कर कल्याण बाबू के पैर पकड़ लिए। ढेमना गिड़गिड़ाने लगा, "सरकार अगले साल मेरी बेटी कमाने-खटने लायक हो जाएगी, तब उसे भेज दूंगा। इस साल भर रोजी-रोटी दे दीजिए, माई-बाप।"
कल्याण बाबू फिर गरजे,"अरे एक साल बाद क्यों, इसी साल अपनी बेटी को साथ लेकर क्यों नहीं आया? तेरी बेटी को यहां टरेनिंग भी मिल जाती और तुझे मेट बनाने का चानस रहता। अच्छा आज अपनी बेटी को चिठ्ठी भेज दे, मंगतुआ उसको यहां किसी तरह पार्सल करिए देगा,।" यह कह कर काले पहाड़-से कल्याण बाबू ने जोरदार ठहाका लगाया। उसके ठहाके साथ, मंगतू सहित मजदूर हंस पड़े, सिर्फ ढेमना हाथ जोड़कर और सिर झुकाए खड़ा रहा।
कल्याण बाबू के सामने से जब रनिया गुजरी तो कल्याण बाबू चहक उठे, "अरे! मंगतुआ, तू तो बड़ा काबिल आदमी है रे! बस, तुझे यहीं नहीं मालूम की मजदूरों की परेड मेरे सामने किस क्रम में करानी चाहिए। हां, ई सुंदरी किसके साथ आई है?
"बुधना ने हाथ जोड़ कर कहा, "सरकार ई मेरी बेटी रनिया है। खूब मेहनत से काम करेगी सरकार।"
मंगतू ने भी कहा, "सरकार सबसे फस्ट लड़की है। सबसे ताजा बिलाइती है, लाले-लाल बिलाइती, सरकार!"
मंगतू की बात सुन कर सभी हंस पड़े। रनिया शर्मा गयी। बुधना झेंप कर रह गया। हंसी थमते ही कल्याण बाबू चहक पड़े,"तो मंगतुआ इसी बात पर हो जाए गीत-नाच।"
मंगतू ने कहा,"सरकार अभी शुरू करवाते हैं।"
थोड़ी देर में ईंट भट्ठा मांदर और नगरे की आवाज से गूंजने लगा। सभी स्त्री-पुरुष मजदूर नाचने लगे-
हाय देखे मे लाल लाल बिलाईती
छू-छू के देख रे
हाय देखे में रिंगी-चिंगी छोकड़ी
कइसन-कइसन नखरा करे
हाय देखे में लाले लाल बिलाइती……
नाच में कल्याण बाबू भी शामिल हो गए। उन्होंने रनिया और मगंरी के बीच में स्थान लिया। कल्याण बाबू के हाथ बार-बार बहक रहे थे। इस बात को रनिया और मगंरी महसूस कर रही थीं, पर संकोचवश वे प्रतिकार नहीं कर पाए। खैर, जल्द ही यह कार्यक्रम समाप्त हो गया।
बुधना ने इसके पूर्व चाय बगान में काम किया था, परन्तु उसे ईंट भटठे में काम करने का अनुभव नहीं था। फ़िर भी कल्याण बाबू के रंग-ढंग उसे अच्छे नहीं लगे। वह मन में विचार ने लगा, "ई कल्याण जिस तरह रनिया को घूर रहा था, उस तरह तो कसाई भी बकरे की ओर नहीं घूरता.... यह भी हो सकता है कि यह हंसी मजाक कर रहा हो....यह कभी राक्षस लगता है, कभी मसखरा फ़िर भी मुझे सावधान रहना होगा………"
इधर कल्याण बाबू हवेली की ओर बढ रहे थे और उधर हवेली से जतरू की बंधक पड़ी पत्नी सधुनी धीरे-धीरे चली आ रही थी। उसकी चाल से लग रहा था कि उसका पूरा महीना चल रहा है। जतरू अपनी सुधनी से बारह महीने बाद मिल रहा था। जतरू और सुधनी का पुनर्मिलन बड़ा मार्मिक था। दोनों की आंखों से बहती आंसुओ की धारा एक दिन अवश्य ही प्रलय की नदी बनेगी………।
बुधना बहुत सीधा-सादा आदमी था। वह सधुनी की त्रासदी नहीं समझ पाया और जो समझ रहे थे, वह यह भी समझ रहे थे कि यही उनकी नियति है। उनके माथे पर यही कहानी, न मिटने वाली स्याही से लिखी हुई है। यह तो सभी के साथ होना ही है। जंगल का हिंसक जानवर भले ही हिंसा छोड़ दे, लेकिन आदमी की खाल में छिपे जानवर के शरीर में ह्रदय होता ही नहीं है। वह असली आदमखोर होता है। वह किसी को नहीं छोड़ता। गिद्ध से भी नीच होता है वह। गिद्ध मुर्दे को नोचता है और वह जीवित शशीर को।
कल्याण बाबू की कृपा से उसी दिन बुधना को सबसे अच्छी झोपड़ी मिल गई। उसे मेट का पद मिल गया। उसे अन्य मजदूरों से डबल मजदूरी मिलने लगी। बुधना, शुकरी और रनिया काफ़ी दिल लगा कर काम
करने लगे। बुधना तो अपनी जिम्मेदारी से बढ़-चढ कर काम करता। कल्याण बाबू बराबर उसकी पीठ ठोंकते। और उसे ईनाम में प्रायः दस-बीस रुपया दे डालते या पूरे परिवार के लिए नए कपड़े उसकी झोपड़ी में पहुंचा देते। धीरे-धीरे बुधना के मन में कल्याण बाबू के प्रति बैठा भय समाप्त हो गया। बुधना की नजर में कल्याण बाबू देवता की तरह स्थापित हो गए थे। बातचीत या गपशप के के क्रम में जब मजदूर लोग कल्याण बाबू की आलोचना करने या गालियां देने लगते तो बुधना उसके बीच से कोई न कोई बहाना कर खिसक जाता।
चार महीनें के अदंर लाखों कच्ची ईंटें, बुधवा की निगरानी में सूख कर तैयार हो गई थीं। भट्ठा सज चुका था। बस भटठे में आग फ़ूंकने की देर थी। फ़िर वह समय आ गया, जब बुधवा ने भट्ठे में आग फ़ूंकी
भट्ठे की चिमनी धुंआ उगलने लगी। बुधना काफ़ी खुश था, 'सारी की सारी ईंटें एक नम्बर की तैयार होंगी……"
वह एक सपने में खो गया, 'कम से कम पाचं हजार रुपए कमा कर गांव लौटूंगा। रनिया की शादी धूम धाम से करूंगा। गांव के युवक नगरा बजांएगे, मैं स्वयं मांदर बजाऊंगा। रनिया की शादी में पूरा गांव नाचेगा,
गाएगा, झूमेगा……
हरदी रंगल कनिया कदम तरे ठाड़ रे
दुयो कानें सोना लवकय
साइस देलौ सोनव
ससुर देलौ रुपव
सइयां देलौ सभें रे सिंगारा रे……
बुधवा अचानक सपने से उबरा। उसे रनिया की याद हो आई,'रनिया को यह जलता हुआ भट्ठा दिखा दूं। वह मुझसे रोज पूछा करती है कि चिमनी मे आग कैसे दहकती है ? कच्ची ईंट कैसे पकती है ? बुधना अपनी झोपड़ी की ओर भागा। वहां उसकी पत्नी शुकरी तो थी, लेकिन रनिया नहीं थी। उसने ने शुकरी से पूछा, 'रनिया कहां है?"
"रनिया तो भट्ठे पर ही थी।"
"क्या बोलती हो? तुम्हारे भट्ठा जाने से दस-पंद्रह मिनट बाद ही रनिया को मैंने तुम्हारे पास भेजा था।"
बुधवा ने रनिया को पुकार-पुकार कर उसकी खोज की। एक-एक झोपड़ी में देख डाला। रनिया मिली नहीं। अचानक बु्धना की नजर कल्याण बाबू की हवेली की ओर चली गई। वह सहम कर रह गया। उसके सारे सपने बिखर गए। कल्याण बाबू के ठहाके उसके कान के पर्दे को फ़ाड़ रहे थे। उसका देवता, रावण से भी पतित निकला। रनिया रोती-कलपति, नुची-फ़टी साड़ी में उसके सामने खड़ी थी। बुधवा को हवेली की चिमनी से मानव गंध युक्त धुआं निकलता नजर आ रहा था। उसे झुलसी हुई एक बेबस कच्ची ईंट नजर आ रही थी……
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