शनिवार, 24 जुलाई 2010

मौत की रेखा के नीचे

                           अकलू मुंडा का कुत्ता अंतिम सांसे गिन रहा था। उसे अपने जीवन के बीते क्षण याद आने लगे-"गांव के लोग मुझे देखते ही कहते,"यह देखो, अकलू मुंडा का शेर चला आ रहा है।"


                               मैं इस वाक्य को जब भी सुनता, मेरा सीना गर्व से फूल जाता। वैसे भी मैं   गांव का सबसे तंदरुस्त कुत्ता था। मुझे अपनी काली चमकीली खाल पर फख्र था। मुझे अपनी सेहत पर पूरा भरोसा था। मैं कुत्ता होकर भी शेर की तरह दहाड़ाता। गांव के अन्य कुत्ते मुझे देखते ही दुम दबा कर 'कूं-कूं' करने लगते। मजाल कि मेरे रहते , मेरे मालिक की ड्योढ़ी पर फूलन देवी का गैंग भी चढ़ने की बात सोचता।

मालिक को मेरे ऊपर मुकम्मल विश्वास था। वह मुझे हर दिन मांस, मछली, अंडा, चावल, रोटी, दूध आदि खाने के लिए देता। मैं मस्त होकर खाता। रात में जग कर पहरा देता। दिन में अपने मुलायम गद्दे पर सोता रहता या कभी मालिक या उसके बेटे ननकू के साथ खेल लेता। मालिक मुझे भरपूर प्यार देता। मुझे वह कभी जूठन नहीं खिलाता, कहता,"अरे शेरू तो अपने परिवार के सदस्य-सा है। देखो, इसे कोई जूठन न खिलाए।"

                         तब मालिक का खेत सोना उगलता था। मेरे मालिक की ड्योढ़ी पर रोज बड़े-बड़े साहुकार ट्रक या बैलगाडियां लेकर आते। मालिक को नोट की गड्डियां पकड़ाते और धान, गेहूं, मकई, फल,सब्जी, बांस आदि मालिक से खरीद ले जाते।

                         मेरा मालिक ऊंची गद्दी पर बैठा रहता। वहीं से बैठा- बैठा वह अपनी खेती-बारी का काम भी करवा लेता। लखना, बुधवा, एतवा, दलपतिया और न जाने कितने मजदूर उसके खेत पर रोज खटते और खा-पीकर मुस्टंड बने रह्ते।लखना का पुष्ट शरीर तो बड़ा दर्शनीय था। जरा अकड़ कर खड़ा हो जाए तो लगे कि यूनान के किसी देवता की मूर्ति है वह।

                         सुख-दुख के चक्र से बंधी है यह पृथ्वी। कब राजा रंक हो जाए या कब उर्वरा भूमि बंजर हो जाए, कोई नहीं बता सकता। कुछ वर्ष पूर्व ही हमारे गांव से धीरे-धीरे सुख-शांति का पलायन होने लगा। गांव के ऊपर जो बादल कभी अमृत बरसाया करते थे, अपना गुण भूल बैठे। मानो, ज्ञानी ज्ञान का दान करना भूल गया हो। फसल पर फसल मारी जाने लगी। मेरे मालिक के अनाज का भंडार खाली हो गया। गांव के हर आदमी के सामने भूख सबसे बड़ी समस्या बन गई। लोग दाने-दाने के मोहताज हो गए। कई लोग पेड़ के पत्ते और उसकी जड़ों को खाकर किसी तरह अपनी सांस बचाए हुए थे। लखना का दर्शनीय शरीर चलता-फिरता नरकंकाल बन गया। गांव मे मांदर की थाप नहीं गूंजती, क्योंकि यम का नगाड़ा बजता रह्ता। कोई नृत्य नहीं करता, क्योंकि सबकी आंखों के सामने मृत्यु अखंड तांडव करती रह्ती। कोई गीत नहीं गाता, क्योंकि गांव हमेशा विलाप-स्वर से भरा रहता।


                              किसान की दो ही पूंजी होती है - बीज और आशा। मेरे मालिक ने अपनी जमापूंजी के बल पर खेतों में बीज डाले। अपनी आशा बनाए रखी, लेकिन हर बार बादल मुंह-चिढ़ा कर चले गए। खेत की मिट्टी पर दरारें पड़ गईं। फसलें  जलती रहीं और एक दिन मेरे मालिक की आशा रूपी पूंजी भी चुक गई।


                              बादलों की बदनीयती का प्रभाव मेरे भोजन पर भी पड़ा। पहले मांस, मछली और अंडे बंद हुए। फिर भात- रोटी पर भी आफत आ पड़ी । मेरे सामने जूठन फेंकी जाने लगी। मेरे मालिक के प्यारे बैल, संतु और अंतु बिक गए। उनकी जोडी टूट गई। दोनों अलग-अलग हाथों में बिके। मेरे मालिक की गाएं,गहने जेवर,बरतन बासन और एक दिन उसकी गद्दी तक बिक गई।

                              उस दिन गांव में बड़ी गहमागहमी थी। गांव के स्कूल-मैदान में मंत्री जी का भाषण होना था। खाली पड़े स्कूल में उस दिन हेडमास्टर से लेकर चपरासी तक उपस्थित थे। गांव के कुछ बच्चों को जलेबी का लालच दे कर स्कूल में बुलाया गया था।

                              स्कूल मैदान में एक ऊंचा मंच बनाया गया था। मंच पर गद्दे बिछाए गए थे। मसनद करीने से रखे गए थे। फूल के कई गमले भी मंच पर सजाए गए थे। एक माइक भी लगाया गया था, जिसके सामने खड़ा आदमी बोलता तो लगता कि कोई राक्षस बोल रहा है!

                              लारियों और जीपों में लद-लद कर पुलिस अधिकारियों और सिपाहियों की भारी फौज गांव में पहुंची। पूरा गांव सहम गया। डोम टोली,चमर टोली और नीची टोली में भारी दहशत फ़ैल गई। पुलिस ने गांव में पैर रखते ही इन टोलियों से अनेक असामाजिक तत्वों को पकडा और उन्हें पीट-पीट कर थाने की हवालात में बंद करवा दिया। मंगरा भी पुलिस के हाथों पिट कर अधमरा सा हवालात में पसर गया। सिर्फ़ चार दिन पहले वह अपनी बहन रनिया के साथ अपने नाना के घर एक बोरा अनमोल चावल पंहुचाने आया था। वैसे पुलिस पकड़े गए अधिकांश असामाजिक
तत्वों के नाम भी नहीं जानती थी। उन्हें शायद मेरी नाक वाली ग्रंथी मिल गई थी। वे शायद कुत्ते की तरह सूंघ कर आसमाजिक तत्वों को पकड़ सकते थे।
                                कृषि पदाधिकारी ने प्रखंड कार्यालय के प्रांगण में कृषि उत्पादों की प्रदर्शनी लगा दी थी। प्रदर्शनी में अन्न,फल,सब्जी,मधु आदि थोड़ी-थोड़ी मात्रा मे सजा कर रखे गए थे। वैसे प्रदर्शनी की सारी सामग्री दूर-दराज से लाए गए थे। आलू नैनीताल का था, तो चावल देहरादून का! अंडे हरियाणा के थे, तो प्याज मद्रास की! मेरे गांव में पूरा भारतवर्ष सजा हुआ था। यह सब कृषि पदाधिकारी के सक्षम होने का प्रबल प्रमाण पत्र थे! इतना ही नहीं, सिर्फ दो दिन अपनी ससुराल में रह कर नानू अपने गांव पहुंचा तो वह अचंभित रह गया था। बोल पड़ा था," ई हे हकयं अप्पन गांव?"

                               विकासात्मक और पुलिसिया तैयारियों के बाद ऐलान किया गया था -"मंत्री के बहुमूल्य भाषण से लाभ उठाने के लिए सारे गांववासी स्कूल मैदान में संध्या पांच बजे पहुंचें।" मैं भी अपने मालिक के साथ ठीक समय पर स्कूल मैंदान में भाषण का लाभ उठाने पहुंच गया। मुझे गांव के फारेस्ट डाक बंगले में मांस, मछली, पुलाव आदि रांधे जाने की गंध लग गई थी। मुझे उम्मीद थी कि भाषण के बाद लाभ स्वरूप मेरा भी अंश मुझे प्राप्त होगा। एक अर्से के बाद मैं भी कुछ हड्डियां चबा पाऊंगा। वैसे डाक बंगले से जूठन फेंके जाने का इंतजार आदमी के अनेक बच्चे भी कर रहे थे। परंतु, सभी की हसरत, हसरत ही रह गई। किसी को हड्डी भी नसीब नहीं हुई। अकाल-राहत  कार्य में हाथ बंटाने आए मंत्री जी के स्वयंसेवकों ने हड्डियां तक चबा डालीं।

                               मैदान में मेरे करीब ही दो स्वंयसेवक आकर बैठ गए। उनके कुरते-पजामे चक-चक साफ़ थे। उनकी सिल्क की बंडियों में गुलाब की कलियां लगी हुई थीं। उनकी आंखों में लाल डोरियां थीं। दोनों आपस में बतियाने लगे-

                             "अगर राहत-कार्य दो महीना भी चल जाए तो अपना एक साल का कोटा पूरा हो जाएगा।"
                            "अरे,घबराते क्यों हो? राहत-कार्य कम से कम छह महीना चलेगा। लांग टर्म,और शार्ट टर्म, दोनों प्रकार के आपातकालीन काम शुरू किए जा रहें हैं। लेकिन, अब हम लोगों के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है।"

                          "कौन सा खतरा?"


                          "अध्यक्ष संतू जी,अरे और कौन? अगर वह यहां कबाब में हड्डी बन कर पहुंच गया तो समझो कि सारे किए-किराए पर पानी फ़िर जाएगा।"


                          "खैर,छोड़ो उस पाजी की बात। उधर देखो सूखे में हरियाली खड़ी है।"

                           दोनों रनिया के सांचे में ढले बदन को देख रहे थे। कुछ देर देखने के बाद वे फ़िर बतियाने लगे।


                         "अरे, यहां रोटी महंगी है,पर हरियाली सस्ती। यह हरियाली हमारी सेवा में, देखना, बिना-चू-चपड़ चली आएगी। दारोगा जी से बात पक्की कर चुका हूं। उसके भाई को हवालात से बाहर तभी किया जाएगा, जब यह डाकबंगले के अदंर आ जाएगी।"

                         "अरे जनाब, मैं जानता था कि तुम जब साथ हो तो इस उजाड़ गांव में भी हरियाली ढूंढ ही लोगे। इस मस्त्ती के लिए मैं पहले से तैयार होकर आया हूं। डाकबंगले में चार थरमस शराब और कुछ पैक्ड कबाब की व्यवस्था करके यहां आया हूं। शबाब की कमी रनिया पूरी कर देगी।"

                          इस बीच मंत्री जी का लंबा-चौड़ा काफ़िला मंच के पास पहुंचा।  माइक के सामने खड़ा एक स्वंयसेवक पागल की तरह उत्तेजित हो उठा। हाथ उछाल-उछाल कर मंत्री जी के समर्थन  में नारे लगाने लगा। साथ-साथ वह उपस्थित ग्रामवासियों को भी नारे लगाने के लिए कहता जाता।

                           मेरे मालिक ने भी एक बार नारा लगाया, पर उसका दम फ़ूल गाया। वह खांसने लगा। भोजन की मांग करती उसकी अंतड़ियां पहले से ही नारे लगा रही थीं! मालिक को पेट-दर्द के रूप में धमकी भी मिल गई। मालिक हाथ आए लाभ के अवसर को भी गंवाना नहीं चाहता था, सो वह मैदान में उकड़ूं बैठ गया, पेट को दबाए।
                           मंत्री जी भाषण देने लगे,"भाइयो, हम जानते हैं कि यहां भयानक अकाल पड़ा हुआ है। यह सब हमारे विरोधियों के कारण हुआ है। आप हमारा हाथ मजबूत करें, हम आपका बराबर ख्याल रखेंगें। हमारे राज में इस गांव ने बहुत तरक्की की है। हमारी सरकार ने ग्रामीण नियोजन के अनेक कार्यक्रम सफ़लता पूर्वक चला रखे हैं। मैंने प्रखंड कार्यालय में आपके विकास की फ़ाइल देखी है, अकाल राहत की भी फ़ाइल देखी है……"

                             भाषण के दौरान ही तीन बसों में जानवरों की तरह लदे हुए स्त्री-पुरुष मजदूर स्कूल-मैदान की बगल वाली सड़क से असम की ओर बढ़ते हुए दिखे। शायद, यहां की सरकार ग्रामीण नियोजन का कार्यक्रम असम, पंजाब और दिल्ली में चला रही है!

                              मंत्री जी का लंबा भाषण समाप्त होने के बाद डोम टोली, चमर टोली, नीची टोली आदि के गरीबों को कतार से खड़ा कर दिया गया। मेरा मालिक भी कतार में खड़ा हो गया, लेकिन प्रखंड विकास पदाधिकारी के चपरासी ने उसे धकियाते हुए कतार से निकाल दिया। चीखता हुआ वह बोला,"अरे हरामखोर, देखता नहीं कि यह कतार गरीबी रेखा से नीचे वालों की है?"

                             मेरा मालिक गिड़गिड़ाते हुए बोला,"मालिक, मैं तो मौत की रेखा के नीचे हूं!"
मालिक की बात सुनकर मेरा रोम-रोम रो उठा, लेकिन चपरासी ने मेरे मालिक को चार-पांच भद्दी गालियां दे डालीं। मेरा मालिक चुप रह गया। प्रखंड के चपरासी के सामने मेरे ग्रामीण मालिक की क्या हस्ती थी?

                                मंत्री जी मंच के नीचे आए। गरीबी रेखा से नीचे वालों की कतार के सामने आकर मंत्री जी ने अनाज के पैकेट बांटने शुरू किए। कतार धीरे-धीरे छोटी होती चली गई। जब रनिया की बारी आई तो उसने मंत्री जी से कहा,"हमको दो पैकट दो, सरकार।"

                                मंत्री जी तो आगे बढ़ गए, पर एक पुलिस अधिकारी ने रनिया को डांटते हुए, कहा "यंहा तेरे बाप की कमाई बंट रही है क्या? एक व्यक्ति को एक ही पैकट मिलेगा, समझी!"


                                "साहब, मैं तो एक पैकट मंगरा के लिए मांग रही हूं। वह मंत्री जी के जाने के बाद हवालात से छूट कर आएगा। मेरे नाना ने दारोगाजी को बीस सेर चावल, चार मुर्गियां और छह पपीते भी पहुंचा दिए हैं।"

                                वह पुलिस अधिकारी रनिया को गालियां निकालता मंत्री जी की ओर भागा। इस प्रकार प्रखंड में अकाल राहत कार्य का उदघाटन कार्यक्रम संपन्न हो गया। अधिकारी, पुलिस और स्वयंसेवक अकाल पर्व मनाने लगे!

                                कुछ ही दिन पूर्व मेरा मालिक अपनी बूढ़ी को गांव में छोड़कर अपने बेटे, बेटियों और बहुओं के साथ मजदूरी करने असम चला गया। मेरा मालिक अपनी बूढी के लिए अन्न पानी की थोड़ी व्यवस्था कर गया था। सिर्फ पेट भर जाने से क्या होता है? मालिक के साथ उसने तीस बरस गुजारे थे। बूढ़ी दिन रात आंसू बहाती रहती। कभी- कभी उसे खाना खाया नहीं जाता या उससे एक-आध रोटी ज्यादा पक जाती तो वह मुझे भी रोटी खिलाती। वह हरदम मुझसे कुछ-कुछ बोलती रहती। मैं उसके साथ साए की तरह लगा रहता।

                                 एक रात गांव में जंगली हाथियों का झुंड घुस आया । गांव भर में कोहराम मच गया। हाथी झोपड़ियों को रौंद रहे थे। एक क्रोधित हाथी मेरे मालिक के घर की ओर भी बढ़ा। मैं झटपट उस हाथी का रास्ता रोक कर खड़ा हो गया।


                                 हाथी क्रोध में उबलता हुआ बोला,"अरे मूर्ख ,तुम जानवर होकर इन खुदगर्ज आदमियों की रक्षा करना चाहते हो? मुझे  ध्वस्त कर देने दे यह घर। मुझे इस घर से चावल और आटे की गंध आ रही है।"


                                 मैंने हाथी से प्रार्थना की,"देखो तुमको यह घर ध्वस्त कर क्या मिलेगा? और अगर मुट्ठी भर अनाज तुम्हें मिल भी जाए तो क्या तुम्हारा पेट भर जाएगा? इस घर में सिर्फ एक लाचार बूढ़ी रहती है, उस पर दया करो। तुम जंगल में वापस चले जाओ। तुम्हारे लिए 'आपरेशन एलीफेंट' कार्यक्रम के तहत सरकार कितना काम कर रही है। और सरकार आदमी ही बनाता है। तुम सरकार बनाने वाले आदमी का घर नहीं तोड़ सकते।"

                                  "अरे मूर्ख, हम आदमी से अनाज लूटने नहीं आए हैं। हम उन्हें सजा देकर बताना चाहते हैं कि वह जंगल का विनाश बंद कर दे । आदमी ही जंगल के फलों के वृक्ष , बंसवाड़ियां आदि काट ले गए। जंगल की सघनता खत्म हो गई, इसलिए अब यहां बादल भी पानी नहीं बरसाते। हम भूख और प्यास से पागल हुए जा रहे हैं और आदमी हाथियों के लिए क्या कार्यक्रम चलाएगा? कार्यक्रम के संचालकों का पेट तो मेरे पेट से भी बड़ा है। जंगल में अब हाथियों का  प्रेमालाप भी इन आदमियों ने समाप्त कर दिया है। जंगल में कई खानें खोद डालीं हैं। खानों के पास से हमेशा बारूद के विस्फोट की भयावह आवाज आती रहती है। अत: आदमी को सबक सिखना आवश्यक है। तुम मेरे रास्ते से ह्ट जाओ।"

                             मैं बोला, "मैं अपने जीते-जी अपने मालिक का घर तुमको ध्वस्त करने नहीं दूंगा।"


                             इतना कह कर मैं उछ्ल -उछल कर भौंकने लगा। उसकी सूंड पर कई जगह अपने दांत भी गड़ा दिए, लेकिन कहां हाथी और कहां मैं एक कुत्ता । उसने मुझे अपनी सूंड से पकड़ लिया। मुझे काफी ऊंचा उठा कर जमीन पर कस कर पटक दिया। हाथी ने मेरे मालिक का घर ध्वस्त कर दिया। पता नहीं बूढ़ी का क्या हुआ? और पता नहीं यह हाथी किस आदमी की बात कर रहा था? यहां के जंगली और गंवार आदमी तो कभी जंगल में जाते ही नहीं। जंगल में कोई आदमी कहां जाता है ? वहां तो वन विभाग के अधिकारी, लकड़ी, खनिज और पत्थर के व्यापारी ही आमतौर से जाते हैं! यह हाथी जरूर गलतफहमी का शिकार हो गया है।


                             खैर, अब मैं मौत की रेखा के नीचे हूं। अलविदा!

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