बुधवार, 24 जुलाई 2013


कहानी 
लूजर 
*दिलीप तेतरवे
यह सब अचानक हो गया. धुआं उठा. आग की लपटें उठीं और सब कुछ राख में परिणत हो गया. काठ की नाव, आग के दरिया में विलीन हो गयी...और विलीन हो गया सोमनाथ समर्थ का शरीर. सोमनाथ समर्थ, जिस ने अपने जीवन में अनेकानेक कहानियां लिखीं, काग़ज पर कम और देह पर ज्यादा...विलीन हो गया एक शक्तिशाली आकर्षक व्यक्तित्त्व...एक मछली का जाल...और वह आज जल गया, जिसकी जिन्दगी से जलने वालों और उस पर मर मिटने वालों की एक लम्बी सूची है...वह पूरी जिन्दगी सामाजिक परम्पराओं से बेपरवाह चला...वह जब तक जीवित रहा, लोग उसे देखते ही कह उठते- समरथ को नहि दोष गोसाईं...और मैं जब भी इस दृश्य को स्मृति में लाती हूं मेरी आखों में अनेक तसवीरें कौंध जाती हैं...जीत की बहुत सी तसवीरें और...और हार की सिर्फ एक तसवीर...
   आज साठ की उम्र में, मैं बीस की उम्र की अपनी अल्हड़ता को याद कर रही हूं...उबलते प्रेम गीतों का लिखना...सहवास की याचना करते प्रेम गीतों का लिखना...गीतों के नीचे राशि का नाम लिख कर, समर्थ जी के थैले में हर दिन चुपके से डाल देना...फिर समर्थ जी का हृदय बल्ले पर चढ़ जाना...क्लास में उनकी नजर हमेशा राशि पर टिकी रहना...बिना किसी कारण के उसकी तारीफ़ करना...उनके द्वारा चुपके से राशि को अपने घर बुलाना और...और...राशि का करारा तमाचा समर्थ जी के गालों पर अंकित हो जाना...और...और कुछ ही दिनों के बाद राशि का समर्थ जी के सामने समर्पण...उस से कथित विवाह रचाना...शायद, कुछ ही दिनों में...बहुत कुछ घटित हो गया था...
    मेरी अल्हड़ता ने एक लड़की की जिंदगी ही बदल डाली  थी...लेकिन, मुझे कोई फ़िक्र नहीं थी...जो मुझे करना था, मैंने किया...जो राशि को करना था, उसने किया...आखिर कोई वजह रही होगी कि वह समर्थ जी के आगे समर्पित हो गयी? मैं इस प्रश्न में क्यों उलझती...यह उसके जीवन का प्रश्न था...बहुत से लोग, जिन में मेरे कई मित्र भी थे, जो इस प्रश्न पर कई दिनों तक चर्चा करते रहे...कोई राशि को बोल्ड कहता तो कोई उसे कायर कहता...डौली ने धांसू डायलॉग जमाया था, शेर के गाल पर तमाचा जड़ते ही शेरनी बकरी बन गई...अकड़ ढीली पड़ गई...और हलाल हो गई...
   मेरे खेल ने राशि की जिन्दगी को एक अनूठे मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया था...किन्तु मैं अपराध बोध से जरा भी ग्रसित नहीं हुई थी...मैं शुरू से संवेदना से दूर रहने वाली, अल्हड़ लड़की थी...मैं हमेशा अपने लिए जीने वाली व्यक्ति रही...मैं हमेशा जीवन की भौतिकता में विश्वास रखती रही...मुझे बस आनंद की जिन्दगी चाहिए थी, वह पाप के मार्ग से मिले या पुण्य के मार्ग से...लेकिन, जिंदगी मिले तो उसमें आनंद हो, रोमांच हो, इश्क हो, फरेब हो...कुछ भी हो, लेकिन आनंद रहित  न हो...
    एक दिन राशि ने मुझ से पूछा, लीली, क्या मेरे नाम से प्रेम गीत लिख कर, तुम ही समर्थ जी के थैले के डाला करती थी? मैंने उन गीतों को पढ़ा है...उन गीतों की लेखन-शैली तुम्हारी ही लगती है...सच-सच बोलना...क्या यह तुम्हारी शरारत थी?
    मैंने कुछ सकुचाते हुए इतना ही कहा, मैंने तो सिर्फ मजाक किया था...चिल यार! मैं तो...
    राशि बीच में बोल पड़ी, तुम ने जो किया, वह ठीक नहीं था...और...और ठीक भी था...देखो, समर्थ जी ने मुझे बाद में बहुत प्रेम से समझाया कि प्रेम-व्रेम कुछ भी नहीं होता है...इस संसार में बस दो ही रिश्ते हैं, स्त्री और पुरुष. दोनों को एक दूसरे के लिए प्रकृति ने बनाया है. यह परिवार क्या है? बंधन है...कोरा बंधन...उन्होंने मुझ से कहा- तुम मेरे साथ कुछ दिनों तक रहो...जब तक भला लगे...जब तक मुझ में एक समर्थ पुरुष उपस्थित लगे...फिर मैं अपनी राह और तुम अपनी राह...साथी तो मिलते और बिछुड़ते ही रहेंगे...यही प्रकृति का नियम है...
   लीली, समाज के लोग मेरे और समर्थ जी के संबंध पर बहुत शरीफ बन जाते हैं और नैतिकता और चरित्र की बातें भी करने लगते हैं...पैंतालीस का दूल्हा...बीस की दुल्हन...क्या चरित्र  है...कितने में बिकी...ऐसी टिपण्णी देने वाले लोगों को झांसा देने के लिए हम दोनों ने मंदिर में जा कर शादी रचा ली...वैसे, न मैं भगवान को मानती हूं और न समर्थ जी...और सच कहूं तो भगवान को कोई नहीं मानता है...हर आदमी इस शब्द का प्रयोग, दूसरों को डराने के लिए करता है...और लोग शादी करते हैं समाज के गंदे कमेंट्स से बचने के लिए...मेरी मां भी मुझे भगवान का नाम लेकर बहुत डराती थी और स्वयं भी ख़ूब पूजा-पाठ किया करती थी...और जब पापा दूसरी के पास चले गए, तो मां की मदद में कोई भगवान नहीं आया...मां ने दुबारा गलती की और फिर से शादी कर ली...मुझे भी झेलना पड़ा एक सौतेला और शराबी पिता...
    लीली, मैं समाज की आलोचना को कोई तरजीह नहीं देती...समाज के कुछ लोगों का धंधा ही है, दूसरों के जीवन में ताक-झांक करना और नुक्कड़ वाली चाय दूकान पर एक्सपर्ट कमेंट्स देना...ऐसे लोग, अकेली रह रही बीमार बूढ़ी पड़ोसन को अस्पताल तक नहीं ले जा सकते हैं, लेकिन उस बूढ़ी औरत के अकेले रहने पर, अनेक मनगढंत कहानियां अपने दोस्तों को सुना कर, सुख का जरूर अनुभव कर सकते हैं...
   लीली, जरा सोचो, यह कितनी बुरी बात है कि लोग पूरी जिन्दगी ही नहीं, बल्कि सात जन्म के लिए शादी के बंधन में बंधते हैं...उनको जीवन की एकरसता कैसे अच्छी लगती है, मैं समझ नहीं पाती हूं...एक ही आदमी के साथ पूरी जिंदगी...एक कैद जिंदगी...मोनोटोनी...मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती...
   राशि ने मुझ से चहकते हुए पूछा, तुम ने कभी उन्मुक्त जीवन जीने की कोशिश की है? पुरुष का अनुभव किया है? पुरुष रूपी आनंद के सागर की लहरों पर कभी तैरी हो? नहीं तैरी तो तैर कर देखो...तुम इस दुनिया और इस समाज को भूल जाओगी...बस, तुम को अपनी दुनिया दिखेगी...जिस में तुम उन्मुक्त हो कर, किसी पुरुष के साथ एकाकार हो जाओगी...उस में घुल-मिल जाओगी...पुरुष तुम्हारे अंदर समा जाएगा...पूरा आनंद का सागर तुम्हारे अंदर उमड़ेगा...अनोखा...अद्भुत अनुभव है वह...प्राकृतिक अनुभव...
   मैं राशि की भौतिकवादी दार्शनिक बातों से ऊब कर बोली, देखो, राशि मैं बिलकुल अलग तरह से जिन्दगी को देखती हूं...अपनी जिंदगी का हर फैसला मैं लूंगी...मेरे पास सोचने समझने के लिए अपना दिमाग है...मैं तुम्हारी तरह किसी पुरुष की बांहों में ही आनंद को कैद नहीं पाती हूं...मैं आजाद लड़की हूं, तो हर मामले में आजाद हूं...मुझे पुरुष की गुलामी पसंद नहीं...
    राशि ने कहा, तुम्हारी तरह...कभी मैं भी सोचती थी...और यही कारण था कि जब समर्थ जी ने मुझे अपनी बाहों में आने का आमंत्रण दिया था, मैंने उनको एक तमाचा भी जड़ दिया...लेकिन मैं गलत थी...अनुभवी आदमी ही ज्ञान दे सकता है...सुख दे सकता है...वे मुझे एक अनोखी दुनिया में ले गए...मुझे इस बात की ख़ुशी है कि आज मैं एक हारी हुई लड़की की तरह नहीं बल्कि एक विजेता की तरह समर्थ जी के साथ रहती हूं...मैं चाहती हूं कि मैं जहां भी रहूं, वहां मैं लूजर न बनूं...मैं तो जीतने में विश्वास रखती हूं और मुझे हार मौत की तरह लगती है...
    मैंने राशि से कहा, खैर, अभी तुम समर्थ जी वाणी बोल रही हो...मैं यही चाहूंगी कि मैं उसकी ही बाहों में जाऊं, जो मेरी बोली बोले...
   लीली, मैं तुम्हारी नीति से सहमत नहीं हूं...समर्थ जी ने कितना ठीक कहा है-पुरुष से अलग स्त्री अस्तित्वहीन होती है...लीली, पहले मुझे भी लगा था कि समर्थ जी पागल हैं...यौन-विकृति के शिकार हैं...लेकिन, ऐसा कुछ भी नहीं है, उनके पास एक विशाल हृदय है...उनका हृदय सेवन स्टार रिजॉर्ट-सा है...और वे अपने रिजॉर्ट में बहुत-सी स्त्रियों के साथ रहना चाहते हैं...उन के साथ जिंदगी जीना चाहते हैं...और क्या यही कामना कोई स्त्री नहीं पाल सकती है...यह तो प्राकृतिक कामना है...नई-नई जगह कौन नहीं जाना चाहता...नए-नए कपड़े कौन नहीं पहनना चाहता है...गीता में भी कहा गया है कि जब एक वस्त्र पुराना हो जाता है तो आदमी नए वस्त्र को ग्रहण करता है...लीली, हम अपनी इच्छाओं को मार कर, परिवार के घेरे में सड़-गल जाती हैं. हमें इस परिवार के घेरे से बाहर निकल कर, अपने जीवन को सार्थक, प्राकृतिक और समर्थ बनाना होगा...हमें मुक्ति की मांग करनी होगी...
  मैंने राशि से पूछा, खैर, तुमको समर्थ जी कैसे लगे...तुम को उन्होंने प्रथम मिलन पर क्या दिया? 
  राशि ने कहा, समर्थ जी सच्चे अर्थ में पुरुष हैं...प्राकृतिक पुरुष हैं...उन में कुछ भी बनावटी नहीं है...उन्होंने पहले मिलन के बाद, मुझे अपनी कार से मेरे बेस्ट फ्रेंड कामेश के पास भेज दिया...जीवन में मुझे जो चाहिए था दो ही दिनों में मिल गया...कामेश से मिलन का अवसर, समर्थ जी के द्वारा मुझे दिया गया पहला गिफ्ट था...और उस दिन से मैं उन्मुक्त जीवन जी रही हूं...प्राकृतिक जीवन जी रही हूं...लगता है कि पृथ्वी पर खड़ी हो कर आकाश को छू रही हूं...
   राशि, तुमने अपने होने वाले बच्चे के भविष्य के बारे में कुछ सोचा है?
   बच्चे? ये बच्चे कहां से आ गए? जब मैं उनको लाना चाहूंगी तभी वे आएंगे...लीली, हम कितना बड़ा पाप करते हैं, जब किसी बच्चे को उसकी मर्जी के बिना, इस बंधन वाले संसार में, इस कुंठित समाज में उतार देते हैं...खैर, जब बच्चे होंगे तो उनके बारे में सोचा जाएगा...अभी से इन बातों पर चिंता करना, अपना दिमाग खराब करने के बराबर है...अभी मैं उन्मुक्त जीवन जी रही हूं...मैं तो प्रकृति के करीब आ गई हूं...जीवन के करीब आ गई हूं...मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है...मेरी दुनिया में लोकलाज के साथ-साथ चलने वाला शोषण नहीं है...यहां सिर्फ आनंद है...प्राकृतिक मिलन है...भौतिक संबंध है...प्रकृति की दो कृतियों की सांसों का सरगम है...और लीली, मैं तुमको एक बात साफ़ बता देना चाहती हूं कि तुम अपने कुंठाग्रस्त और दकियानूसी विचारों के साथ उन्मुक्त जीवन नहीं जी सकती हो...तुम वही पारम्परिक जीवन अपनाओगी और रसोई के धुएं में एक दिन मर-खप जाओगी...तुम अपने पति की सेवा में तब तक लगी रहोगी, जब तक वह कब्र में नहीं समा जाता या तब तक, जब तक तुम इस दुनिया से विदा नहीं ले लेती हो...तुम को पति के साथ जीवन गुजारने के लिए, पूरी जिंदगी अपनी जिंदगी से दूर हो रहना पड़ेगा...तुम अपनी जिन्दगी भूल जाओगी...तुमको एक गुलाम की तरह जीना होगा...बच्चे स्कूल गए कि नहीं...पति का जूता पालिश किया कि नहीं...पति के पीए लतिका के लिए बर्थ दे गिफ्ट लायी या नहीं...इन्हीं फ़ालतू के कामों में तुम तीस वर्ष में ही आंटी जी बन जाओगी...तुम कभी मेरी तरह बन कर देखो...तुमको एक कामयाब जिंदगी मिलेगी...
   मैं राशि की बात सुन कर मन ही मन हंस रही थी. उसे मूर्ख समझ रही थी. लेकिन, मैं यह जान चुकी थी कि समर्थ जी की रसिकता उसे भा गई है. वह उनके साथ रहती हुई, कई अन्य दोस्तों के साथ भी संबंध बना रही थी. और अपने दोस्तों से उन संबंधों की खुल कर चर्चा कर रही थी. वह इस स्थिति में पहुंच गई थी कि वह कुछ भी कर सकती थी. और उस ने वह सब कुछ कर दिखाया जो कभी उस के वश में नहीं था. वह अपने सामर्थ्य की सीमा को लांघ कर, आगे बढ़ी चली जा रही थी. और उसकी प्रगति देख कर, उस की लोकप्रियता देख कर, उस की सामाजिक प्रतिष्ठा देख कर, मुझे उस से ईर्ष्या होने लगी थी. जलन होने लगी थी. मन करता था कि मैं राशि का गला ही दबा दूं...टीवी खोलती तो राशि कविता पाठ करती नज़र आती...रेडियो ऑन करती तो उसी के गीत...मेरा वश चलता तो मैं उसे आग के दरिया में डाल देती...राशि ने मेरी आखों से नींद चुरा ली थी...वह मेरे मन पर परजीवी की तरह उग आई थी...मैं जब भी सोने की कोशिश करती तो मेरे मानस पटल पर एक रंगमंच बन जाता और उस रंगमंच पर मैं राशि और समर्थ को  ठहाके लगाते हुए देखती...एक दूसरे में खोते हुए देखती...एक दूसरे को चूमते हुए देखती...आखिर, राशि ने जो कुछ पाया था, वह मेरे ही गीतों के प्रभाव से उसे मिला था...उसने मेरे ही खेल से समर्थ को पा लिया था और वह बड़ी तेजी से साहित्य के आकाश में बुलबुल बन गई थी...
    मैं क्या कहूं...जब उसे ने उस दिन कॉलेज कैंटीन में कविता सुनाई तो लगा मैं मर जाती तो बेहतर था...वह कविता सुना रही थी- मैं खुले आकाश की पाखी हूं...आओ, मेरे साथ हिमालय की ओर चलो...प्रणय स्थल की ओर चलो...वहां की शीतल हवा में...कुछ मादकता तो घोलो...कुछ गरमाहट तो भरो...ओ नर पाखी! कुछ प्रेम की टेर तो लगाओ...आकाश में कुछ देर नर्तन तो करो...हौले-हौले छेड़ो तो मुझे...हौले-हौले सहलाओ तो मुझे...अपने आगोश में...जरा लो तो मुझे...अपनी सनसनाती दुनिया में...जरा ले चलो तो मुझे...और राशि के पंद्रह-बीस साथी तालियां बजा रहे थे...और मैं दूर...अकेली बैठी...कविता सुन कर तिलमिला गई थी...  
   उस दिन मैं अपने कमरे में बैठी बहुत बेचैनी महसूस कर रही थी. मैं खिड़की के पास आ कर खड़ी हो गई. खिड़की के ठीक सामने नीम का एक पेड़ था. पेड़ पर एक घोंसला था. उस घोंसले में पक्षियों का एक जोड़ा रहता था. उस घोंसले में रहने वाले नर और मादा पक्षियों को पहचानती थी. एक दिन एक अनजान युवा नर पक्षी आया और उसने घोंसले पर हमला कर दिया. उस युवा नर पक्षी ने घोंसले और मादा पक्षी, दोनों पर कब्ज़ा कर कर लिया...अपनी मादा से विलग कर दिया गया बेचारा कमजोर नर पक्षी दूर एक डाली पर अपने टूटे पंख को ठीक कर रहा था...और अपनी मादा को देख रहा था, जिसे दूसरा युवा नर पक्षी स्नेह से चूम रहा था...और...और वह मादा भी अपने नए साथी के साथ आनंदित नजर आ रही थी...इस घटना पर मैंने कुछ देर तक सोचा और फिर मैंने तय कर लिया कि मैं राशि को अपने सामने जीतने नहीं दूंगी...मैं उसके घोंसले में प्रवेश कर, उसे विस्थापित कर दूंगी...मैं उसे बता दूंगी कि लीली भी कम नहीं है...और मैं भी समर्थ जी के मन के द्वार पर प्रेम गीत गाने लगी...और समर्थ जी ने मेरे गीतों को शराब मान कर पीना शुरू कर दिया...वे जल्दी ही मेरे लिए समर्थ जी से समर्थ हो गए...वे घंटों मेरे गीतों को सुनते...मेरे हर गीत पर मुझे बाहों में भर कर कहते-
   कमाल के गीत हैं...तुम्हारे दिल से निकले और सीधे मेरे दिल में पहुंच गए... वे कभी मुझे चूम लेते...धीरे-धीरे मैंने समर्थ को जीत लिया...समर्थ मेरे सामने हार गए थे...मैंने अपनी शर्तों पर उन से दोस्ती बना ली थी...और मैं राशि की उपस्थिति में, समर्थ के घर जाती...उसके कथित पति समर्थ के साथ, उसके बेड रूम में रहती...और दो-चार दिन समर्थ के घर पर रहने के बाद, अपने घर लौटती हुई, मैं राशि को अलविदा कहना नहीं भूलती थी...राशि मुझे दिखावटी मुस्कुराहटों के साथ विदा किया करती थी...अपना खुलापन दिखलाने की कोशिश किया करती थी...अपनी उन्मुक्तता दिखलाने का ढोंग किया करती...लेकिन, उसकी मुस्कुराहट के पीछे की पीड़ा मैं ही पढ़ सकती थी...जब उसे मेरे लिए कॉफी बनानी पड़ती...मेरे लिए बेड सजाना पडता...बेड रूम में फूलों का गुलदस्ता रखना पड़ता...मेरे अंग-अंग की सुंदरता की बड़ाई करनी पड़ती...वह मुझे अंदर से रोती हुई नजर आती...और तब मुझे उसके शब्द याद आते- मुझे इस बात कि ख़ुशी है कि आज मैं एक हारी हुई लड़की की तरह नहीं बल्कि एक विजेता की तरह समर्थ जी के साथ रहती हूं...मैं चाहती हूं कि मैं जहां भी रहूं, वहां मैं लूजर न बनूं...मैं तो जीतने में विश्वास रखती हूं और मुझे हार मौत की तरह लगती है...समर्थ जी ने मुझे उन्मुक्त जीवन दिया है...जीवन की यह उन्मुक्तता, परिवार बना कर प्राप्त करना संभव नहीं था...लीली, हम लड़कियां अपनी इच्छाओं को मार कर, परिवार के घेरे में सड़-गल जाती हैं...
   उस दिन राशि कॉमन रूम में अपने मुक्त ग्रुप के साथ अपनी मुक्ति का आनंद ले रही थी. मैं पास की ही एक टेबुल पर चुपके से आ कर बैठ गई...वह चहक-चहक कर बोल रही थी-
   अरे क्या बताएं, जब समर्थ जी के साथ मैं पहली बार बेड पर गयी तो मैं बांस के पत्ते की तरह कांप रही थी...लेकिन, समर्थ ने जिस कौशल के साथ, मुझे अंगीकार किया कि मैं भूल गई कि मैं भी कोई हूं...मैं आनंद के सागर में गोते लगा रही थी...फिर भी जायका बदलने के लिए, कभी इसके या कभी उसके साथ इंजॉय कर लेती हूं...
   लतिका ने पूछा, अरे, तेरा विजय रेसलर के साथ कैसा रहा...कहीं तुम को देख कर भाग तो नहीं गया!
   अरे, तुम तो जानती ही हो कि मुझे लूजर लोगों से बहुत चिढ़ है...फिर भी, उस लूजर को मैंने बहुत हिम्मत दिलाई...मन कर रहा था कि उसे मैं बिस्तर से उठा कर ठंडे पानी से भरे बाथ टब में डाल दूं...लेकिन, दोस्त अगर साथ दे तो लूजर भी विनर बन सकता है...उसके साथ का अनुभव भी बहुत निराला है...मुझे लड़के की तरह उसके साथ पेश आना पड़ा...वह लूजर...
   वह लूजर, बोलते ही राशि चुप हो गई...उसकी नजर मेरे ऊपर पड़ गई थी...
   बहुत मुश्किल से अपने को नार्मल करती हुई राशि ने मुझे विश किया. वह मुझ से बोली, लीली, अकेली क्यों बैठी हो? हमारे मुक्त ग्रुप में शामिल हो जाओ...
   नहीं...तुम्हारे मुक्त ग्रुप के बंधन में नहीं पड़ना चाहती हूं...मुझे जीवन में कोई बंधन स्वीकार नहीं...मैं अकेली ही दुनिया में आई थी और अकेली ही दुनिया से कूच करूंगी...
   फिर भी, तुम हम लोगों के साथ बैठ सकती हो...
   नहीं, मैं अपनी जगह पर ठीक हूं...एक कप कॉफ़ी लूंगी और फिर निकल जाऊंगी अपने घर...तुम लोग एन्जॉय करो...
    मेरे रूखे व्यवहार पर भी राशि मुस्कुरा कर रह गई...लेकिन, उसकी मुस्कुराहट के पीछे उसका क्रोध झलक रहा था...मैं जानती थी कि राशि के लिए तो समर्थ एक जेब है...उस ने बहुत गरीबी झेली थी...घर में रहते हुए उसने बहुत कष्ट झेले थे...आर्थिक कष्ट और मानसिक कष्ट भी...उसे अपने सौतेले बाप को भी झेलना पड़ा था...समर्थ जी को पा कर कम से कम उसकी आर्थिंक परेशानी दूर हो गई थी...और मुझे पैसे की कोई चिंता नहीं थी...मेरे पापा बहुत अमीर व्यापारी थे...मेरा एक ही भाई था, सोमेश, जो मुझ से बहुत छोटा था...ममा और पापा जब एक कार दुर्घटना में शिकार हो गए तो उनके व्यापार को मैं ही देख रही थी...सोमेश बोर्डिंग स्कूल में अध्ययन कर रहा था...अपने सुदृढ़ आर्थिक आधार, अपने गीत कौशल और अपने व्यक्तित्व से, मैंने उस समर्थ को जीत लिया था, जो अविजित समझा जाता था...और मैंने राशि को समाप्त कर दिया था...मैंने राशि की राशि ख़राब कर दी थी...राशि समर्थ की आलमारी का एक और खिलौना मात्र थी...गूंगी, बहरी और अंधी...और समर्थ मेरी उंगलियों पर नाचने वाला दिग्गज शिक्षक था...गीतकार था...दार्शिनिक था...मेरा दोस्त था...और मैं अपने आप में प्रफुल्लित थी...
    समय के पंख होते हैं...भाई सोमेश ने अपनी पढ़ाई समाप्त करने के बाद, व्यापार में मेरा हाथ बंटाना शुरू कर दिया  था...और उस ने एक दिन मुझे चौंका दिया-
    दीदी, आज मैं एकाउंट चेक कर रहा था...आप बहुत-सा पैसा होटलों को पे करती हैं...यहां अपना घर है फिर होटलों पर हर महीने दो से तीन लाख का खर्च क्यों? हम पैसों का बेहतर इन्वेस्टमेंट कर सकते हैं...
    अरे, अब तुम मेरे द्वारा खर्च किए गए पैसों का हिसाब मुझ से लोगे?
    नहीं, मैं हिसाब नहीं ले रहा हूं...मैं एक सलाह दे रहा हूं...मेरा एक सपना है, एक नए व्यापार को शुरू करने का...
   ठीक है, मैं कल ही व्यापार का बंटवारा कर दे रही हूं...
   मुझे लगा था सोमेश मेरे इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देगा, लेकिन उसने तुरंत कहा-
   यही ठीक रहेगा... और यह कह कर वह अपने कमरे में चला गया था.
   मैंने व्यापार का बंटवारा कर दिया. इस बंटवारे के बाद मैं थोड़ी सिमट गई थी...लेकिन, फिजूलखर्ची मेरी आदत थी. मैं जल्दी ही पैसे-पैसे की मोहताज हो गई थी. मुझे अपने हिस्से की जमीन और फ़्लैट बेचना पड़ गया. मैं किराए के फ़्लैट में चली आई...प्रारंभ में, मैंने हाथ आए पैसों का निवेश बहुत सोच समझ कर किया...
    एक दिन समर्थ मेरे फ़्लैट में आए...रात भर मेरे साथ रहे और विश्व भ्रमण का कार्यक्रम बनाया, लीली, इस भ्रमण में तुम होगी और मैं होऊंगा...हम दोनों अनुपम कहानी रचेंगे...लेकिन क्या बताऊं मेरे पास इन दिनों पैसों की कमी है...यह सुंदर सपना कैसे पूरा होगा...
   समर्थ, मैं लगाऊंगी पैसे...हमारी दोस्ती के बीच पैसे का क्या मूल्य...मेरे पैसे लगें या तुम्हारे, इस में क्या फ़र्क पड़ता  है...
   और विश्व भ्रमण के बाद जब मैं लौटी तो मेरे पास व्यापार के लिए पैसा नहीं रह गया था...मैंने एक संस्थान में शिक्षक के रूप में काम करने लगी...जीवन की गाड़ी किसी तरह चलती रही...
    कुछ वर्षों बाद, राशि ने एक बेटी को जन्म दिया. मैंने ही उस की बेटी का नाम रोशनी रखा...रोशनी का पिता समर्थ था या कोई और, मैं कह नहीं सकती...लेकिन, रोशनी पर पूरा नियंत्रण मेरा था...मैंने उसे इस बात का अहसास करा दिया था कि मैं ही उस के लिए सब कुछ हूं...और राशि एक मामूली सी औरत है जो घर का काम-काज देखती है...वह राशि को मां मानती ही नहीं थी...जब भी देहरादून बोर्डिंग स्कूल में अवकाश होता तो रोशनी सीधे मेरे पास चली आती...मुझे इस बात से बड़ा सुख मिलता कि राशि न समर्थ को अपने वश में रख पायी और न अपनी बेटी रोशनी को...जीवन के हर फलक में मैंने राशि को राशिहीन बना दिया था. मूल्यहीन कर दिया था...
   समर्थ से वर्षों मेरा संबंध बना रहा...वह उम्र में मुझसे बीस साल बड़ा था. वह बहुत जल्दी बूढ़ा हो गया...ब्लड प्रेसर और सूगर की बीमारियों से ग्रस्त हो गया...फिर भी मेरी उस से दोस्ती बनी रही...मैं जब भी उसके घर जाती, मैं राशि को नीचा दिखाने का कोई अवसर नहीं गंवाती...उसे मेरे द्वारा अपमानित होने की आदत सी हो गई थी...अगर मैं किसी दिन उसे अपमानित नहीं करती तो वह मुझसे बहुत बेबाकी से पूछ लेती- लीली, क्या बहुत जल्दी है? कहीं जाना है क्या? तुम ने आज मुझे प्रिक किया ही नहीं...कोई नया घाव भी नहीं दिया...आज तुम ने मेरी बढ़ती हुई चर्बी और उम्र पर बात ही नहीं की...कोई लेक्चर नहीं दिया? तुम ने आज समर्थ की देखभाल के संबंध में मुझे डांट भी नहीं लगाई... तुम ने आज समर्थ से कहा ही नहीं कि मेरी किस फूहड़ता को तुम ने डिसलाइक किया...
   
    और...और...एक दिन समर्थ गुजर गया...समर्थ की मौत की खबर सुन कर मैं उसके घर पहुंची और उसकी विदायी की समस्त तैयारियां मैंने ही कीं...उसे विदा भी कर दिया और उस दिन के बाद, मैं समर्थ के घर नहीं गई...राशि समर्थ के घर में अकेली रह गई थी...मैंने राशि से बात करना भी छोड़ दिया था...राशि ने मुझे एक दिन फोन किया-
    कैसी हो लीली? अब तुम आती ही नहीं हो...
    समर्थ जब तक जीवित था तब तक तो मेरा वहां आने का कुछ अर्थ था. अब मैं अपने ही दरबे में ठीक हूं...रोशनी आई थी...उसे तुम से मिलने का मन नहीं था...वह आज ही वापस  देहरादून चली गई...उसकी फीस डाल देना... छोटा सा जवाब दे कर मैंने फोन रख दिया.
   समर्थ की मौत के एक दो साल गुजरे होंगे कि मैं आर्थिक तंगी से घिर गई. जिस संस्थान में मैं पढ़ाती थी उस से मेरा कांट्रेक्ट समाप्त हो गया था. मैंने कुछ अन्य संस्थानों से संपर्क किया, लेकिन कहीं से कोई कांट्रेक्ट मुझे नहीं मिला. पास पड़ोस के लोगों से मैंने संपर्क कर कहा कि वे अपने बच्चों को मेरे घर भेज दें, मैं उनको ट्यूशन दिया करूंगी. किन्तु किसी ने अपने बच्चों को मेरे पास ट्यूशन के लिए नहीं भेजा. पास में रहने वाली शिल्पा जी ने तो मुझे साफ़ कह दिया, आपका इतिहास जानने वाला कोई भी व्यक्ति आपके पास अपने बच्चे पढ़ने के लिए नहीं भेजेगा... मुझे फ़्लैट का किराया चुकता करना, मुश्किल हो रहा था. मकान मालिक ने मुझे फ़्लैट खाली की नोटिस दे दी थी.
   सारी परिस्थितयों को देखती हुई, मैंने अपने जीवन का सबसे बड़ा फैसला ले लिया था...मैंने उस फैसले को अमल में लाने की तैयारी भी शुरू कर दी थी...मैंने बेड पर स्टूल सेट कर लिया था...पंखे से मेरी लाल चुनरी झूल रही थी...वही चुनरी जिसे समर्थ ने मुझे बनारस में खरीद कर दिया था और कहा था-यह चुनरी तुम्हारे लिए नहीं, अपने दकियानूस समाज के लिए दे रहा हूं...जिसे हम दोनों का साथ गुनाह लगता है...और...और तभी किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी...मैं समझ गयी थी कि किराए का पैसा लेने फ़्लैट का मालिक आया होगा...मैंने अपना बेड रूम बंद किया...पर्स से पैसे निकाले और मैंने दरवाजा खोला...सामने...सामने...राशि खड़ी थी...
    लीली, मैं तुमको लेने आई हूं...एक तुम ही तो हो मेरे जीवन में जिस से मैंने समर्थ को हारते हुए देखा...यह रही घर की चाबी...यह रही समर्थ की संपत्ति और उसके बैंक खाते के कागजात...मैं एक वीनर को लूजर बनते नहीं देख सकती...चलो अपने घर चलो...
    और मैं राशि को एकटक देखे जा रही थी...मैं अपने आप से पूछ रही थी...कौन लूजर?
       
    

    

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