मंगलवार, 17 अगस्त 2010

बिखरे पल

बिखरे पल




        पुलिस की जीप मेरे घर के आगे रुकी थी। इंस्पेक्टर ने गिरफ्तारी का वारंट मेरे सामने रख दिया था। मेरे हाथों में हथकड़ी पहना दी गयी थी। एक सरकारी अधिकारी होने का मेरा दर्प अचानक चूर होकर धूल में मिल गया था। मैं
आकाश से सहसा पथरीली जमीन पर औंधे मुंह आ गिरा था।

       गेट से बाहर आकर पुलिस जीप की पीछे वाली सीट पर बैठते हुए, मैंने एक बार सिर उठाने का प्रयास किया था-हर मकान की बालकनी से कुछ जोड़ी आंखें मुझे घूर रही थीं… । मेरा सिर स्वंय झुक गया था।

        मैं आशा कर रहा था कि रमा अपना क्रोध त्याग कर मुझसे मिलने जेल में अवश्य आयेगी, लेकिन यह मेरा कोरा भ्रम था। दो-तीन दिन जेल में गुजर गये, किन्तु मुझसे मिलने दफ्तर का एक भी सहयोगी नहीं पहुंचा………। रात के समय जेल की दीवारें मुझे काटने को दौड़तीं , मुझे नींद नहीं आती। मेरा मन भटकता रहता…

-सर , मैं इस बिल पर ह्स्ताक्षर नहीं कर सकता, यह तो बिलकुल फर्जी है।

-अरे संतोष जी , अगर यह बिल फर्जी न होता तो, मैं आपके ह्स्ताक्षर ही क्यों लेता ? आपको मैं आसानी से बाइपास कर जाता ! अरे, फर्जी बिलों को पास करते हुए अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ती है। सारे कायदे-कानून को ध्यान में रखना होता है, तभी नकली बिल असली बन पाता है। बिल पर हस्ताक्षर कर दीजिये संतोष जी, और मौज कीजिये!

"सर, मैं बिल पास करने वाला अधिकारी हूं। जब भी जांच होगी, मैं ही पकड़ा जाऊंगा।"

"अरे संतोष जी, इस बिल को हमने पूरी तरह से असली बना दिया है, आप भूल गये क्या कि आपकी प्रमोशन मेरे ही हाथ होनी है ? आप राधाकृष्णजी को भी शायद भूल गये ? वह तो सिर्फ असली बिल ही पास करते थे। भेज दिया न उनको जेल में …… मेरी बात समझ रहे हैं न?"

       रमा का चेहरा भी मेरी आंखो के सामने बार-बार घूम जाता, उसके चेहरे के कई कोण होते । कई रंग होते……।

        प्यार से भरी उसकी मुस्कान, मेरी आंखों को तरल कर जाती, उसके स्पर्श का स्मरण , मुझे कंपित कर देता……उसके चेहरे पर खिलते सत्य और मुझे आंदोलित कर देते……मैंने उसका क्रोध भी देखा था…



"संतोष , तुम्हारी जेब में ये रुपये कैसे हैं?"

"अभी रख लो न, बाद में बताऊंगा।"

"बाद में क्यों ? अभी बताओ……।"

"अपने लिए तुम एक बनारसी साड़ी खरीद लेना…… पांच हजार रुपए हैं ……… मेरे हिस्से में तीन प्रतिशत……।"

"संतोष , साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि ये लूट के धन के तीन प्रतिशत हैं……… तुम्हारे अधिकार की कीमत है……। कान खोल कर सुन लो, इन रुपयों से मैं अमृत भी खरीद कर खाना पसंद नहीं करूंगी…… आज से यह घर तुम्हारे पैसों से नहीं चलेगा……… मेरे हाथ अभी काम करते हैं……।"

धन कमाने के इस पक्ष पर रमा मेरे साथ कभी सहमत नहीं हुई। प्रारंभ में मैं रमा के सामने तर्क प्रस्तुत नहीं कर पाता था, लेकिन धीरे-धीरे मैं अपने पक्ष में बोलने लग गया था…

"रमा, यह जरा अलग तरह का युग है, यह पोंगा-पंडितों का युग नहीं। आज हाथ में पैसा न हो तो कोई पूछने वाला नहीं मिलेगा। आज इतने सारे लोग मेरे आगे-पीछे घूमते हैं, क्योंकि मैं अपने अधिकार का प्रयोग करना जानता हूं……।"

"रमा, ये सारे करोड़पति जो तुमको नजर आते हैं, कोई पसीने की कमाई से करोड़पति नहीं बने हैं……।"

"रमा, मेरी फाइल में कोई असली-नकली का भेद नहीं कर सकता। फर्जी बिलों को असली बिलों में बदलने की कला में मेरा कोई जवाब नहीं हैं……सब मुझे गुरू मानते हैं, गुरू……।"

"रमा, अपने प्रिय की स्याह-सूरत, जरा जेल में जाकर देख लो……।"

        अब मैं जेल में था । मेरे पास कोई आईना तो था नहीं कि मैं अपनी सूरत के रंग पढ़ पाता……… जब आदमी की मति मारी जाती है, उसे अच्छे -बुरे का ज्ञान नहीं रह जाता है। मेरी भी मति मारी गयी थी…… मेरे हाथ में जब ढेर सारे रुपये आते तो मैं अपने को सर्व-शक्तिमान मानने लगता, मैं सोचता था कि मेरा कोई अहित कर ही नहीं सकता। मेरी बोली में कोमलता समाप्त हो गयी थी, मेरे शब्द-शब्द में अनहद दर्प होता……मुझे लगता कि पूरा संसार मेरी मुट्ठी में कैद है……… मैं सबसे श्रेष्ठ हूं…… ईश्वर की सत्ता कोरी कल्पना है…… सत्य बकवास है……कायर पुरुष ही सत्य की पूजा करते हुए धूमाच्छादित आकाश में पुच्छ्ल तारे की तरह विलुप्त हो जाते हैं………।

       एक दिन मैंने जेलर से मिन्नत की तो उसने मुझे अपने एक वकील मित्र को फोन करने दिया-

"प्रमोद भाई, मैं संतोष बोल रहा हूं, तुमको मेरा केस लड़ना होगा।

"फिस क्या दोगे ?"

"फ़ीस ? फीस की बात तुम मुझसे कर रहे हो ? खैर, वह भी तुमको मिल जायेगी।"

"कहां से मिल जायेगी ? शायद, तुमको नहीं मालूम कि तुम्हारे सारे उल्टे-सीधे खाते, बैंक के लाकर आदि जब्त कर लिये गये हैं। तुम्हारा साम्राज्य ढह गया है। रमा भाभी को तुम पहले ही खो चुके थे और वह इन दिनों अपने गांव चली गयी हैं, कहां से दोगे तुम फीस?"

"अरे, तुम मुझे जमानत पर रिहा तो करोओ, फीस की रकम की व्यवस्था हो जायेगी, फिर तुमको याद होगा कि तुम्हारी बहन की शादी के समय मैंने तुमको पचास हजार रुपये दिये थे?"

"कौन से पचास हजार रुपये ? मैं कुछ भी नहीं जानता।"

"तुम सचमुच नहीं जानते ?"

"तो मैं क्या झूठ बोल रहा हूं? अगर तुमने मेरे पिता जी को रुपये दिये होंगे तो, तुमको यह भी अवश्य ज्ञात होगा कि उनका निधन हो चुका है, और मेरा सिद्धांत है कि मैं बिना फीस लिए किसी का भी केस नहीं लड़ता।"

मैं उद्धेलित हो उठा था-

"अब यह मुझसे सिद्धांतों की बात करता है। अरे, आज हर व्यक्ति के पास हर समय के लिए अलग-अलग सिद्धांत होते हैं ,समय को पहचान कर लोग विचार गढ़ते हैं। समय को देखकर रिश्ते बनाते-बदलते हैं। सबके सब मतलबी हैं, स्वार्थी हैं। अब मैं सबको पहचान गया हूं। लेकिन अब क्या लाभ ? चिड़िया तो खेत चुग चुकी है।"

मैं झल्ला उठा था। मेरी झल्लाहट मुझे तिल-तिल कर तोड़ रही थी……।

पता नहीं स्टोर कीपर सनातन बाबू को मेरे ऊपर कैसे दया आ गयी । उन्होंने मुझे जमानत पर रिहा करवाने के लिए बहुत दौड़-धूप की। जमानत से रिहा होने के बाद ही मुझे उनकी दया का राज मालूम हुआ। वे मुझे होटल में लेकर पहुंचे। उन्होंने मेरे सामने खरीद की फाइल रखते हुए अपनी बात रखी्…

"मैं इस फाइल को जानता हूं, सनातन जी, अब मुझसे आप और अपराध मत करवायें। क्या इसी कार्य के लिए आपने मुझे जमानत पर रिहा करवाया था?"

"आप क्या समझ रहे थे?"

"सनातन जी, मुझे क्षमा कर दीजिये, मैं इन कागजातों पर हस्ताक्षर नहीं करूंगा।"

"वह तो आप करेंगे ही, संतोष जी! और अगर नहीं करेंगे तो मुझे जेल जाना होगा। लेकिन, तब मैं न्यायालय में आपके विरुद्ध गवाही दूंगा, आपका केस और खराब हो जायेगा, याद रखिये कि मैं स्टोर कीपर हूं और मेरी गवाही का अर्थ आप समझते हैं ! संतोष जी, बिना सोचे-विचारे हस्ताक्षर कर दीजिए।"

        मैने सारे कागजातों पर बैक डेट में हस्ताक्षर कर दिये । शव पर एक मन का बोझ हो या सौ मन का कोई फर्क नहीं पड़ता ! मैं जेल एक दिन के लिए जाऊं या सौ बरस के लिए, क्या अंतर पड़ता है ? मेरी संपूर्ण मान- प्रतिष्ठा, जो शायद दलदली बुनियाद पर थी जो समाप्त हो चुकी थी। किन्तु कभी-कभी मन कहता- मैं केस जीत जाऊंगा, फिर से उसी कुर्सी पर बैठूंगा, मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा ! मैं कोई राधाकृष्ण नहीं कि आसानी के साथ जेल चला जाऊंगा।"

        होटल से निकलने के बाद मैंने एक समाचार पत्र खरीदा, एक समाचार पर मेरी नजर ठहर गयी…

"राधाकृष्ण पर लगे आरोपों के संबध मे दायर याचिका पर उच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए उन्हें सजा से बरी कर दिया है। न्यायाधीश ने अपने फैसले में कहा है कि राधाकृष्ण को एक साजिश के तहत अधिकारियों के एक गुट ने फंसाने का अपराध किया था, क्योंकि वे एक ईमानदार अधिकारी हैं।"

        समाचार पत्र के संपादकीय आलेख में भी उच्च न्यायालय के इस फैसले की सराहना की गयी थी। यह समाचार पढ़कर, मैं हसूं या रोऊं, मुझे समझ में नहीं आ रहा था। वैसे, एक बात स्पष्ट हो गयी थी कि सत्य को पराजित करना आसान नहीं। मुझे में ईश्वर के अस्तित्व पर आस्था जगने लगी थी। लेकिन कुछ ही पल के बाद , मैं दूसरी ही धारा में बह चला था…

-मेरा भी कुछ नहीं होगा। न्यायालय मुझे भी ससम्मान बरी करेगा। न्याय के इतिहास में मुझसे भी बड़े-बड़े अपराधी साक्ष्य के अभाव में आरोप से बरी हुए हैं। और मैंने तो अपने अपराधों के पदचिह्न छोड़े ही नहीं हैं……

मैं शहर से अपने गांव पहुंचा। गांव की सीमा पर ही मुझे पंडित रामावतार शास्त्री जी मिल गये।

-अरे संतोष जी, जेल से बड़ी जल्दी छूट गये…कितना खर्च पड़ा?

-देखिए शास्त्रीजी, ज्यादा खर्च नहीं करना पड़ा, क्योंकि मेरे विरुद्ध मामला ही झूठा है, कार्यालय की गंदी राजनीति का मैं शिकार हो गया था। सांच को आंच क्या?

-अब सफ़ाई क्यों दे रहें हैं, संतोष जी? चोर कभी अपने को चोर कहता है क्या? लेकिन, मान गए आपके उपजाऊ दिमाग को हमलोग!"

         मैं शास्त्रीजी की टिप्पणी सुनकर खून का घूंट पी कर रह गया। पिछ्ले साल यही शास्त्रीजी गांव में मन्दिर निर्माण के लिए मुझसे चंदा लेने आए थे....

-आहाहा ! संतोष जी, आपका दरबार तो कुबेर का दरबार है! और आप, किसी देवता से कम थोड़े लगते हैं! आप धर्मात्मा हैं, धर्मात्मा! सौ जन्म का पुण्य इस जन्म से भोग रहे हैं…

-संतोष जी, आपके बंगले में प्रवेश करते ही लगा कि मैं लक्ष्मी मैया के मन्दिर में प्रवेश कर रहा हूं। आहाहा, तन-मन प्रसन्न हो गया। आपका अपना गांव तो छोड़िये, आस-पास के बीस गांव में आपका बड़ा नाम है। लोग आपको दानवीर कहते हैं…मन्दिर निर्माण के लिए आपसे सवा लाख से कम तो लूंगा नहीं!

         मैंने शास्त्री जी को ढाई लाख देकर संतुष्ट कर दिया था। जहां तक मेरा प्रश्न था ऐसा छोटा-मोटा दान करते हुए मेरी कौन सी जेब कटती थी? उन दिनों तो मैं दोनो हाथों से धन लूट रहा था। मेरे पास पसीने की कोई कमाई होती तो सोचता भी।

        आज वही शास्त्रीजी मुझे ऊंचे स्वर में चोर कह गये थे और मुझे उनकी टिप्पनी सुननी पड़ी थी…गांव के पाठशाला के करीब पहुंचते ही मेरे कानों में रमा के स्वर सुनायी दिये। रमा पाठशाला के बच्चों के साथ प्रार्थना में लीन थी…

-प्रभु सत्य-ज्ञान हमको तुम देना, हम बालक हैं तेरे, गंगा-सा निर्मल मन हमको देना…और मैं? हां मैं, काजल के पंक में स्नानकर अपने गांव लौट रहा था। गंगा-सा निर्मल मन पाने के लिए मैने भी इसी पाठशाला में कभी इसी प्रार्थना को कितनी बार गाया होगा, यह मुझको याद नहीं। गुरु नंदकिशोर जी मुझे अग्र पंक्ति में खड़ा कर देते और कहते कि अपने मधुर स्वर में छात्रों से प्रार्थना प्रारंभ करवाओ… घर में भी मां मुझसे रामचरितमानस का पाठ करवाती……

-कीरत भनति भूति भल सोई।

सुरसरि सम सब कह हित होई…

        काश! काल-चक्र वापस लौटता। मेरा वह दिन अस्तित्व खो बैठता, जिस दिन मैंने पहला जाली बिल पास किया था। जिस दिन मैं दलदल की पहली सीढ़ा चढ़ा था…

        मैंने वे पल खो दिये हैं जो मेरे जीवन के अमूल्य निधि होते थे। आज सब कुछ बिखरा-बिखरा सा है। यह गांव भी अनजान सा लग रहा है, जहां कभी जन्मा था, खेला कूदा और पढा लिखा था। मेरे ह्र्दय मे सब कुछ शून्य-सा प्रतीत होता था। वास्तविकता में मैं अपने मूल से कट गया था। आज के युग में मूल से कटा व्यक्ति समाज और अपने आप के लिए एक बड़ा संकट है। घटनाओं के सत्य को झेलने की शक्ति मुझमें नहीं थी…

        मैं कंगाल बना अपने घर के द्वार पर खड़ा था। उसी द्वार पर खड़ा था, जिस द्वार पर आज से बीस बर्ष पहले पिताजी ने मुझे नौकरी पर जाते समय आशीर्वाद दिया था…

"नौकरी पर जा रहे हो बेटे, तुमको मेरा आशीर्वाद है। लेकिन, एक बात का स्मरण रखना कि ईश्वर की सत्ता ही सबसे स्थिर सत्ता है। अपने अधिकारों का प्रयोग मानवता के हित में ही करना।

        मेरे घर के द्वार पर मेरा पुत्र पारस अपने सिर पर से लकड़ी की एक भारी गट्ठर उतारने का प्रयास कर रहा था। मैंने आगे बढ़ कर गटठर उतारना चाहा।

"पापा, आप छोड़ दिजीए। यह लड़कियों का गटठर है, कोई नोट की गड्डी नहीं जो आप उतार पायेंगे! पापा, आपको केस के फैसला होने तक गांव नहीं आना चाहिए था। गांव में भी अब समाचार पत्र आते हैं और सारे लोग आपके बारे में सब कुछ जान चुके हैं। हम लोगों को आपकी चर्चा झेलना ही आसान नहीं हो रहा है।"

        मैं पारस को क्या कहता? उसके शब्दों ने मेरे जीवन पटल पर चढ़े मुलम्मे को धो डाला। मैं देख रहा था अपना वह जीवन-पटल, जिस पर अनचाहे और असत्य के रंग बेतरतीब-से बिखरे थे……। मैं जानता हूं रमा, पारस और विनीता ने, कभी मेरी काली कमाई का एक भी पैसा अपने लिए उपयोग नहीं लाया। मैंने सारी काली कमाई बेनामी खातों, स्वर्ण बांडों आदि में लगा रखी थी। सैकड़ों ठेकेदार और आपूर्तिकर्ताओं को मैंने करोड़ों रुपयों का अलिखित उधार दे रखा था। मैं सोचता था कि ये मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर जायेंगे कहां? अवकाश ग्रहण करने से पूर्व ही मैं इनसे अपने रुपये वसूल लूंगा और इनसे अरबों रुपये कमाऊंगा भी। लेकिन, ठेकेदारों और आपूर्तिकर्ताओं ने मेरी गिरफ्तारी और कार्यमुक्त किये जाने के बाद, मुझसे बात करने से इनकार कर दिया था। वे निश्चिंत हो गए थे, क्योंकि मैं अधिकार विहीन हो गया था। मेरे पास अधिकार के दुरुपयोग की शक्ति नहीं रह गयी थी। हां, अब लोग मुझे पहचान कर भी पहचानना नहीं चाहते थे ।सब लोग मुझसे कतराते थे, जैसे मैं किसी महामारी से ग्रस्त होऊं…

       रमा पाठशाला से आयी। मुझे दो पल से लिए ठीक से देखा भी नहीं और मुंह फेरे हुए बोली-

"यहां क्यों आये हो? केस लड़ने के लिए पैसे की आवश्यकता थी तो पत्र भी लिख सकते थे?

"रमा , मैं यहां पैसे के लिए नहीं आया हूं। मैं यहां वह सब कुछ समेटने के लिए आया हूं, मैं वे सारे पल समेटने के लिए आया हूं, जिन्हें मैंने कभी अपने हाथों से बिखेर दिये थे।"

-तुम वे बीते हुए पल शायद नहीं समेट पाओगे। तुम वापस शहर चले जाओ। वहां तुम्हारे चाहने वालों की कोई कमी नहीं, प्रेम करने वालों की कमी नहीं।"

-"प्रेम" से तुम्हारे तात्पर्य क्या है?"

-वही, जो तुम उस शब्द का अर्थ समझते हो।"

-तुम मुझे चरित्रहीन भी समझती हो क्या?"

        रमा ने मेरे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। वैसे, यह प्रश्न करते हुए घबरा-सा गया था।मेरे मन में कई प्रश्न उठ खड़े हुए थे…

-रमा कहीं रागिनी के बारे में जानती तो नहीं?"

-कहीं उसने रागिनी का अता-पता तो नहीं जान लिया?"

-नहीं, वह उसे कैसे जान सकती है। वह तो दिन रात अपने काम में व्यस्त रहने वाली महिला है…"

मैं गांव से उसी दिन शहर लौट आया। रिक्शे से सदर बाजार पहुंचा। मेरे सामने था, रागिनी को मेरा दिया हुआ नौलखा उपहार-'प्रेम-सदन'। मैंने कालबेल की बटन पर ऊंगली रखी। दरवाजा खुला…कुछ पत्र की चुप्पी को रागिनी ने तोड़ा-

-जमानत मिलते ही अपने घर चले गये थे, संतोष बाबू? जेल जाने पर तुम्को अपनी पत्नी के प्रति कोई नूतन आभास हुआ क्या?"

-चलो तुमहारे प्रश्न से ये तो पता चला कि कम से कम तुमने मेरी खोज खबर तो ली! आज बैठने भी नहीं कहोगी क्या?"

-तुम तो जानते ही हो कि मेरे यहां बैठने की कीमत लगती है, और अब तुम यह कीमत चुका नहीं पाओगे।"

-देखो रागिनी, मैंने तुमसे प्यार किया है। मैं तुम्हारा कोई ग्रहक नहीं हूं।"

-अगर ऐसी बात है तो चलो अभी अग्नि को साक्षी मान कर सात फ़ेरे लगा लेते है…मैं यह जानता हूं कि तुम यह काम नहीं कर पाओगे…तुममें तो इतनी भी हिम्मत नहीं कि तुम घोषित तौर पर मेरे यहां आ सको…खैर, इन बातों को छोड़ो और सुनो तुम्हारी पत्नी रमा, तुम्हारे जेल जाने के बाद मुझसे मिली थी। उसने मुझसे निवेदन किया है कि केस लड़ने के लिए, जितने पैसे की जरूरत हो, वह मैं तुमको दे दूं। वह बाद में मुझे चुकता कर देगी। बोलो तुमको अभी कितने पैसे चाहिए?"

         मेरा रोम-रोम चित्कार उठा। मैं अपने ही सत्य के सामने चिथड़े-चिथड़े हो गया था। मेरी नसें फ़टने लगी थीं। रमा रूपी त्याग और सत्य की प्रतिमूर्ति के सामने, मेरा समपूर्ण अस्तित्व टुकड़े-टुकड़े हो गया था…रागिनी ने भी मुझे अपने मन के फ़्रेम से उसी प्रकार हटा दिया था, जिस प्रकार लोग काठ के फ़्रेम से टूटा हुआ शीशा हटा देते हैं। और मैं भी कैसा मुर्ख था? स्वंय बिखरा हुआ होकर बिखरे पलों को समेटने चला था…इस अहसास के बाद में उस दिशा में चल पड़ा, जिस दिशा में चलकर मैं अपने अपराधों को भौतिक धरातल पर धो सकता था…न्यायालय में मैंने अपना अपराध स्पष्ट तौर पर स्वीकार कर लिया। मैंने अपने लिए सजा की मांग की। मुझे सजा मिली। मैं जेल में डाल दिया गया और…दस वर्ष के बाद-आज मैं ज़ेल से रिहा कर दिया जाऊंगा।एक छोटे जेल से बड़े जेल में कदम रखूंग़ा।

-मैं जानता हूं कि अब रमा जीवित नहीं है……

-मेरा पुत्र पारस और पुत्री विनीता मुझे स्मरण करना भी पाप समझते हैं……

-काश! मैं भी रमा की तरह पंचतत्व मे विलिन हो जाता… हे ईशवर !मैं यह कलंकित शरीर लेकर कहां जाऊंगा? कौन मुझे अपने ह्रदय से लगएगा?"

इन्हीं प्रशनों के बीच जेल का द्वार मेरे लिए खोल दिया गया था, और मुझे उस दुनिया मे प्रवेश करना था, जिस दुनिया में मेरे लिए सारे द्वार और खिड़कियां बंद हो चुकी थीं।

-अंधेरे मे कहां भटकूंगा?"

        मेरे इस प्रश्न का अप्रत्याशित उत्तर मुझे शीघ्र ही मिल गया। मेरे और रमा के द्वार लगाया गया पूरा का पूरा बाग जेल के द्वार पर उपस्थित था। पारस, बहू निर्मला,विनीता,दामाद सिद्घार्थ, मेरा पौत्र सुमन, नाती कुमुद और नतनी चांदनी ने मुझे जेल से निकलते ही घेर लिया था। …… मैं प्रेम के घेरे में ले लिया गया था।"

…… एक फूल ने फूल का मुझे उपहार दिया ……

-दादा जी, यह फूल आपके लिए!

उस फ़ूल की सुगंधी मे रमा के स्वर गूंज रहे थे-

-सतोंष,अगर जीवित होती तो मैं अपने हाथों से तुमको तुम्हारे बिखरे पल समेट कर दे देती… लेकिन अब यह कार्य हमारे पौधे के फूल ही पूरा करेंगे…"



सत्य, प्रेम और निष्ठा की एक त्रिवेणी मेरे सामने प्रवाहित हो रही थी……

मैं सब कुछ छ्लछलायी आखों से…भर आये ह्रदय से अनुभव कर रहा था ! ……





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें