शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

मेरे मन की खिडकी

मेरे मन  की खिडकी
(उपन्यास अंश)
दिलीप तेतरवे

      बहुत सारी कुंठाओं और वर्जनाओं  से वह घिरा हुआ था....जीवन के प्रारंभ में समाज ने उसे इतना अपमान दिया था कि उस अपमान को  कलम से उकेरा नहीं जा सकता...... उसने गरीबी ही हद देखी थी. बाद में, गरीबी से उबरने के लिए उसने अपने आप को तैयार किया था. उसने वह रास्ता जान लिया था, जिस पर चल कर वह समाज को सजा दे सकता था. वह भी अमीरों की  तरह  रह  सकता था. सिर उठा कर चल सकता था. लेकिन कौन जानता  था कि जिस रास्ते पर वह चल पड़ा है, वह उसे एक दिन तन्हा कर जायेगा...तड़पायेगा ...रुलाएगा..उसे उसका भूतकाल डराएगा....धमकाएगा...और वह एक दिन अपने बीते हुए दिनों  से भागने के लिए छटपटायेगा  ....लेकिन, शायद वह कभी अपने भूतकाल से  पीछा नहीं छुड़ा पायेगा......
           रविराज आकुल-व्याकुल था," ओ माँ! मैं सोना चाहता हूँ...आई वांट तो स्लीप...मुझको नींद चाहिए...देखो माँ, मैंने सोने की तैयारी कर ली है...सारे दरवाजे बंद कर लिए हैं....सारी खिड़कियाँ बंद कर लीं हैं...बिस्तर भी सजा लिया है...पर नींद क्यों नहीं आती, माँ ? उफ़ ! मेरा सिर फटा जा रहा है....मैं पागल हो जाऊंगा....हाय! यह बुढ़ापा ....यह अकेली हांफती-कांपती ज़िंदगी, नींद की भीख मांग रही है....मुझको दो पल के लिए नींद दे दो....दो पल  के लिए, माँ......"
         पायल के खनकने की आवाज सुन कर रविराज के चेहरे पर घबराहट छा जाती है.....फिर दूर से एक आवाज गूँजती है," रविराज, रविराज......".....फिर व्यंग  से परिपूर्ण हँसी तैर उठती है......
         रविराज सहमी सी आवाज में बोल उठाता है," यह किसके पायल की आवाज है ? अरे यह किसने मुझे पुकारा...नहीं, नहीं.....यह मेरा भ्रम है....मेरे  कमरे के सारे दरवाजे और खिड़कियाँ बंद हैं ...अब मैं सोना चाहता हूँ...."
          फिर एक गूँजती-सी, खनकती-सी आवाज आती है," रविराज, पहले तो तुम  सारी-सारी रात जगे रहना पसंद करते थे....और आज इतनी जल्दी सो जाना चाहते हो...क्या हो गया है तुमको.....बच्चे की तरह सोने के लिए व्यग्र हो रहे हो.....क्या बात है, मिस्टर प्रोफ़ेसर ?"
            रविराज कांपती आवाज में पूछता है," कौन हो तुम ? ....कौन ?....वैशाली हो ?....नहीं, नहीं तुम यहाँ कैसे आ सकती हो.....तुम्हारे गुजरे तो कई वर्ष बीत गए....मुर्दे वापस नहीं आते....देखो, मैं भूत-पिशाच में विश्वास नहीं रखता......"
            एक गंभीर आवाज आती है," रविराज, तुमने ठीक पहचाना.....मैं वैशाली ही हूँ.....रविराज....."
            "तुम ?.....तुम वैशाली, यहाँ कैसे चली आई?...वैशाली, कृपया मुझको अकेला छोड़ दो.....मैं सोना चाहता हूँ....मैं सोना चाहता हूँ...वैशाली....देखो....ये देखो....मैंने दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर दी हैं....मुझे सोने दो....."
             तेज हंसी के साथ वैशाली बोलती है," अरे रविराज, तुम मुझसे भागना  चाहते हो ?...मुझसे ?.....ओ प्रिय रविराज, यह क्या ?....तुम तो कहते थे कि तुम मेरे बिना इक पल भी नहीं रह सकते हो.....खैर, इक बार बताओ, तुमने अपने जीवन में क्या कभी दूसरों की नींद चुराते हुए शर्म की है ?.....तुमने कभी यह भी नहीं सोचा होगा कि तुमको स्वयं नींद की याचना करनी पड़ेगी...कभी नींद के लिए तड़पना और तरसना पडेगा....है न?"
            "दिखो वैशाली. मैं आज तुमसे किसी भी तरह की बहस में नहीं पड़ना  चाहता हूँ.....पता नहीं तुम मेरे कमरे में कैसे चली आयी हो....मैंने तो सारे दरवाजे और खिड़कियाँ बंद....."
             वैशाली बीच में ही टोकती है," रविराज, मैं तुम्हारे कमरे में तुम्हारे मन की खिड़की से आ गई  हूँ......तुम अपने मन की खिडकी बंद करना भूल गए थे......खैर, जब मैं आ ही गई हूँ तो क्या तुम अपनी कवितायेँ मेरे स्वर में नहीं सुनना चाहोगे......
             ......सोया रहे सारा शहर अन्धकार में
                   बस मैं और तुम
                   गुलाबी रोशनी के बीच
                   जागते रहें सारी रात
                   मेरी बाँहों में तुम सिमटी रहो
                   मेरी धडकनों  को सुनती रहो
                   भूल कर कि तुम कौन हो
                   मुझमें समाती रहो
                   मुझमें खोती  रहो
                   खुशबुओं से भर दो मेरी सांसें....."

          रविराज चींख पड़ता है," बंद करो...बंद करो...मैं अपनी कविता- कहानी कुछ भी नहीं सुनना चाहता हूँ....नहीं सुनना चाहता....साहित्य से मुझे नफरत सी हो गई है...मैं अब शब्दों का खेल  खेलना नहीं चाहता हूँ..."
            
           " वाह रविराज, तुम कितने बदल गए हो....आज तुम अपनी कविता नहीं सुनना चाहते....अपनी कहानी नहीं सुनना चाहते....तुम बहुत बदल गए हो....ओ रविराज, तुम्हारी प्रेमपूरित कविताएँ ....तुम्हारी रोमांटिक कहानियां.....कभी ये ही तो तुम्हारे हथियार हुआ करते थे....इन्हीं के सहारे कभी तुमने मुझको जीत लिया था.... मुझको कभी भरमाया था.....मुझको  कभी छला था.......
          तुमने इक दिन गाया था-
          प्रेम तो मैं हूँ
          स्नेह का समन्दर हूँ मैं
          आसमान भी मैं
          जमीं भी मैं
          तुम्हारे लिए सिर्फ मैं हूँ
          और मैं ही तुम हो
          तुम ही मैं हूँ.....
          .....इन्हीं  हथियार जैसी कविताओं  से कभी तुमने  मेरे प्रेम, विजय को मुझसे छीन  लिया था.....है न ? "
          
            रविराज अपना सिर धुनते हुए चिल्लाया," मेरे सामने विजय का नाम मत लो.....और तुम यहाँ से चली जाओ....अब तुममें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है.....कभी दुबारा मेरे सामने विजय का नाम  मत लेना....."
            "क्या करूं रविराज, मैं क्या, कोई भी अपने पहले प्यार को भूल नहीं सकता है......अरे तुम क्या जानो कि पहला प्यार क्या होता है....तुम तो हर अगले  प्यार को अपना पहला प्यार मानते थे....लेकिन, विजय मेरा पहला प्यार था.... तुमने उसकी तस्वीर पर किसी  हिंसक  पशु कि तस्वीर जड़ दी और मैंने उसे सच की तस्वीर मान ली...तुम्हारी सम्मोहन शक्ति....तुम्हारी कवितायें.....तुम्हारे प्रेम गीत.....मैं  उनके सामने तो एक सम्मोहित कठपुतली हो गई थी....तुम्हारे हाथ का खिलौना बन गई थी....खूब खेला तुमने इस खिलौने के साथ और जैसे ही इस खिलौने से तुम्हारा  मन भर गया, तुमने  मुझको सदा के लिए सुला दिया.....ताकि....ताकि तुम दूसरे  शिकार  पर निकल  सको....है न ? मैं तो विजय का नाम लूंगी...वह मेरा पहला प्यार था.."
       रविराज चींख पड़ता है ," बकवास बंद करो....विजय की सच्ची तस्वीर ही मैंने  तुम्हारे सामने रखी थी....विजय जैसा था, वैसा ही मैंने तुमको बताया था...."
         ठहाके की गूँजती आवाज के बीच कोई बोलता है," और रविराज तुमने जैसा वैशाली को जाना था, वैसा ही उसके बारे में मुझे बताया था....धोखेबाज थी वह, बदचलन थी वह.... है न ? "
         रविराज अपने सिर पर  आ गए पसीने को पोछता हुआ बोलता है,' तुम....तुम....विजय तुम भी आ गए ?.....मैं तुम्हारी फरेबी आवाज को पहचानता हूँ....."
          "हाँ, रविराज मैं भी आ गाया हूँ....तुमको तुम्हारे अतीत में ले जाने के लिए....लेकिन, न मैं कभी फरेबी था और न  आज हूँ....यह सब तो रविराज तुम्हारे अधिकार में था....तुम तो हमारे लिए नियंता बन बैठे थे....हम तो तुम्हारे सामने बौने बन गए थे.....हम तो तुम्हारे शब्दों के माया  जाल में फंसे हुए लोग थे......"
          "विजय, तुम दोनों में इतनी दुश्मनी थी फिर भी तुम दोनों साथ आये हो ? तुम  वैशाली को तो फूटी आँखों से भी देखना नहीं चाहते थे....अब कैसे साथ-साथ हो ? "
         " अब मैं और वैशाली सिर्फ आत्मा हैं...और दो आत्मा के बीच कोई मनमुटाव नहीं होता है, रविराज....जब तुम भी मर जाओगे तो हमारे मित्र बन जाओगे.....लेकिन याद रखना कि तुम इतनी जल्दी नहीं मरोगे....तुमको तो अभी अपने अतीत की लम्बी यात्रा पर निकलना है.....अतीत की लम्बी यात्रा पर...."
          रविराज ने घबराहट भरे स्वर में कहा," तुम दोनों मुझको पागल बनाना चाहते हो....पागल....क्या मिलेगा तुमको ?"
          विजय ने गंभीरता के साथ कहा," रविराज तुम पागल नहीं बनोगे...हम तो पूरे होश में तुमको तुम्हारे अतीत में ले जाने के लिए कटिबद्ध  हैं.....और तुम ही अपनी कलम से अपने अतीत को लिखोगे, रविराज.....अपनी कलम के साथ तैयार हो जाओ,  कहानी के पीछे की कहानी लिखने के लिए....."
        रविराज भभक उठता है, " तुम मुझको जबरदस्ती मेरे भूत और भविष्य में नहीं ले जा सकते हो....मैं कोई खिलोना नहीं हूँ....."
         वैशाली ने व्यंग कसा," हाँ, रविराज खिलौने तो हम लोग थे....तुम्हारे खिलौने.....तुम्हारे मोहरे....तुम तो सदा से शतरंज की दोनों ही ओर से ही खेलते रहे हो....तुमने जब चाहा, जैसा चाहा वैसा  ही , कभी सफ़ेद तो कभी काले मोहरे को हरा दिया....तुम तो मैच फिक्स करते रहे हो.....रविराज...."        

                  

                 
          
       

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