गुरुवार, 11 नवंबर 2010

कम्बल

 कम्बल
    उस मैदान में हर रोज सुबह-सुबह अनेक वृद्ध  लोग जुटते और एक दूसर से गले मिल कर समवेत स्वर में ठहाके लगाते. उन ठहाकों के बीच, शायद वे अपने दुःख दर्द को, अपनी लाचारगी को, अपनी स्थाई हो चुकी बीमारियों को भूल जाने का प्रयास करते थे. मैं हर दिन उनकी गतिविधियों को देखता और कभी कभी उनके इतने पास बैठता कि उनकी बातों को भी सुन सकूँ-
      -अरे विश्वास बाबु, मैं आर्मी में  कप्तान  था, लेकिन  अपने घर में मुझको  सैनिक का भी रैंक नहीं प्राप्त है, हा, हा, हा, 
      - कप्तान साहब, तुम हंस रहे हो पर मैं जानता हूँ कि तुम रो रहे हो. खैर,  मैं भी जब नौकरी में आया था तो सोचता था कि अब मैं दुनिया का मालिक हूँ और अपने परिवार का मैं राजा हूँ. आज भी मैं परिवार के  साथ हूँ, पर मैं आज राजा नहीं हूँ, मैं रंक हो गयाहूँ. आज मैं अपने ही बनाये घर के बाहरी  बरामदे में सिमट कर रह गया हूँ. अपना कहने के लिए कुछ भी नहीं है.    
            -अरे विश्वास बाबु, मेरी  दास्ताँ भी सुनिए. जब मैं विदेश से लौटता था तो परिवार के जो लोग एअरपोर्ट पर मेरे लिए गुलदस्ता लेकर खड़े रहते थे, हाथ में पट्टियां लिए रहते थे-'वेलकम टू  आवर गौड श्रीनिवास', और साथ  ही  मन ही मन  हिसाब लगाने की चेष्टा करते थे कि मेरी जेब से इस ट्रिप में  वे कितना पैसा पा सकेंगे. लेकिन, अब वे लोग  मुझे देख कर आँखें फेर लेते हैं.
       -अरे आप लोग इस राजा देवेन्द्र की कहानी भी सुनो- आज  पोते बिट्टू ने मुझका मेरे बेटे अजीत के कुछ दोस्तों के सामने बहुत लताड़ा- 'दादा तुम्हारा अपना घर नहीं है, जो तुम हमलोगों के घर हर साल आ धमकते हो और महीनों यहाँ टिक जाते हो. मेरे स्टडी रूम में अपना बिस्तर लगवा लेते हो. मुझको  कितनी तकलीफ होती है.  क्या  आपको नहीं मालूम  कि जब आप अपने यहाँ आने की खबर भेजते हैं, तो मम्मी और पापा में कितना झगड़ा होता है.  बोलो  दादा, तुम अपने घर कब वापस जाओगे?
        -अरे, जनाब इस नाचीज की राम कहानी भी सुन लीजीए, एकदम लैटेस्ट है. कल शाम बड़ी हिम्मत कर मैंने अपने  दोस्त नदीम को अपने घर बुला लिया था. लॉन में  किनारे पड़ी कुर्सियों पर बैठ कर, नदीम के साथ मैं गपिया रहा था. नदीम अपने  शेर बीच-बीच में सुनता और ठहाके लगता. उसने जवानी के दिनों को याद करते हुए कहा- अरे जनाब नाचीज, वो तुम्हारी शबनम थी न, उसका क्या हाल है ?.... मैंने तभी देखा कि मेरी हिटलर बहूरानी लॉन में ही मटरगश्ती कर रहीं हैं, सो मैंने उससे कहा कि छोड़ यार अब उन पुरानी बातों को, लेकिन वह 
 मानने वाला कहाँ था ? उसने तुरंत  ठहाका लगाते हुए कहा, ले अबकी सुन तूं अपना एक शेर, जो तू शबनम के लिए लिखा करता था- 
मेरे दिल-ए-नाचीज को भुला जाइयेगा/साथ गुजरे हुए वो दिन वो रातें भुला जाइएगा/...... बस बवाल हो गया...बहू रानी ने करीब आ कर नदीम के बारे में पूछा कि यह कौन बदतमीज है ? मैंने हिम्मत कर के कहा, यह मेरे बचपन के दोस्त हैं नदीम, आईजी  के पोस्ट से रिटायर हुए हैं...लेकिन हिटलर बहू रानी ने तो हद पार कर दी- ये नदीम हों या सदीम,  इनको तुरत यहाँ से दफा कीजिए.....बेचारे नदीम साहब तो बिना कुछ बोले ही चलते बने....और मैं सिर झुकाए सर्वेन्ट्स क्वार्टर में मुह छिपाने चला गया. 
            ये वृद्ध जन बहुओं और बेटों की बेरुखी,  बदतमीजी,  झूठ, डांट-फटकार से सदा घर में भयभीत रहने वाले लाचार प्राणी थे. वे सुबह-सुबह मैदान में बड़ी कठिनाई से आते थे. उनका स्वास्थ्य भी उनका साथ नहीं देता था, फिर भी वे अपनी ह्रदय की पीड़ा बाँटने, अपना अकेलापन दूर करने,  पैर घसीटते -घसीटते,  मैदान में पहुँच जाते थे.  
        उन दिनों  कड़ाके की  ठण्ड पड़ रही थी. मैं मैदान में जागिंग कर रहा था. मुझको वृद्ध लोगों  की टोली फिर ठहाके लगाती दिखी. लेकिन, उन वृद्ध जानो में एक वृद्ध विश्वास बाबु ठहाके लगाते लगाते रोने लगे. सारे वृद्ध जनों ने उनको घेर लिया-
         -क्या बात है विश्वास बाबु, क्या बेटे ने या बहु ने कुछ कह दिया?
        -क्या आपके बेटे ने आपके लिए नया कम्बल ला कर नहीं दिया ?
       सिसकियों के बीच विश्वास बाबु ने बताया, 'चार दिनों से बहु से छिपा कर, बेटे श्रवण  से कर रहा था कि बरामदे में मुझ ठण्ड लगती और मेरे पास एक ही पुरानी कम्बल है, वह  एक नयी कम्बल मेरे लिए ला दे. श्रवण रोज कहता कि आज ला दूँगा , आज ला दूंगा, लेकिन कभी लाता नहीं था. कल शाम जब मैं अपने बिस्तर पर  उकडू बैठा था तो श्रवण की आवाज सुनाई दी, देखिये पापा क्या खरीद कर लाया हूँ....उसके हाथ में एक बड़ा सा कैरी  बैग था....मुझे लगा कि वह मेरे लिए नयी कम्बल लाया है...मैंने  श्रवण के हाथ से कैरी बैग ले कर खोला....जानते हो उस कैरी बैग में क्या था ?'  
        सबने पूछा,' कैरी बैग में क्या था विश्वास बाबु ?'
        विश्वास बाबु ने अपनी आँखों से बहती आंसुओं की धारा को पोछा और कहा,'उसमें  श्रवण के प्यारे कुत्ते डूजो के लिए एक महंगी कोट थी. मैं उस कोट को देख कर आवाक रह गया. मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं हंसू कि रोऊँ. लेकिन , श्रवण ने  बिना किसी हिचक के कहा- पापा, आपने जब बताया कि आपको एक कम्बल से जाड़ा  नहीं जाता तो मुझे लगा कि बेचारा बेजुबान कुत्ता डूजो भी तो बरामदे में ही सोता है, उसको कितना जाड़ा लगता होगा, सो आज उसके लिए यह कोट ले आया, सिर्फ दो हजार की है और यह कह कर वह अपने एअर कंडीशंड कमरे में चला गया!'






   

1 टिप्पणी:

  1. अज वृ्द्धावस्था भी किसी अभिशाप से कम नही। बच्चे अपने संस्कार भूलते जा रहे हैं। ये घर घर की कहानी बहुत अच्छी लगी। शुभकामनायें।

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