शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

राजो नहीं, रजनी सरदेसाई !

कहानी 
*दिलीप तेतरवे            
उस रात मैं सो नहीं पाया. करवटें बदलता रहा. बार-बार मेरी आँखों में उस भोली सी लड़की का रोना और सिसकना याद आता रहा. कितनी लाचार सी दिखी थी वह...शब्दों में इसका वर्णन करना मुझे आज भी  मुश्किल लगता  है. बस मेरा दिल उसके दिल की हालत को महसूस कर रहा था. बड़ी मुस्किल से उसको  अँधेरे  में एक कतरा रोशनी दिखी थी, उसे भी प्रज्ञा ने छीनने की कोशिश  की थी. एक लड़की, दूसरी लड़की को तबाह करने के लिए  इतना गिर सकती है, यह मैंने नहीं सोचा था. चाहता तो प्रज्ञा को सबक सिखा सकता था, लेकिन इस प्रयास में उस मासूम के लिए और संकट बढ़ जाने के असार थे. सो, मैंने तय किया कि उस मासूम के लिए गम पी लूँ, हालाँकि यह जहर पीने से भी मुश्किल  काम था. पर जीवन में ऐसा भी देखना लिखा था सो देख ही लिया. इन्हीं सब चीजों से तो जिन्दगी जिन्दगी बनती है.
       "राजो, तुम को बस एक वर्ष से भी कम का इंतजार करना है. जैसे मैंने अपने आप को समेट लिया है, उसी तरह सब कुछ  भूल कर अपनी मंजिल की ओर बढ़ चलो. जो कुछ प्रज्ञा ने किया उसे बस एक बुरा सपना मान कर भूल जाओ."  
      राजो  ने मेरी बात का कुछ भी जवाब नहीं दिया. मैं जनता हूँ कि उसको अपनी फ़िक्र नहीं है. उसे फिक्र है मेरी प्रतिष्ठा की. यह मान-प्रतिष्ठा भी बड़ी अजीब चीज होती है. लोग इसके लिए न जाने कितना अर्थ-अनर्थ कर जाते हैं. लेकिन राजो के आसुओं की कीमत के सामने मेरी मान-प्रतिष्ठा का कोई मूल्य नहीं था. उसके आंसू सच्चाई की गंगा-सी थी...पवित्र...निष्कपट...दिल से निकल कर आँखों से बहती....
       " राजो, यह दुनिया बहुत बड़ी है और मेरी अपनी दुनिया भी बहुत बड़ी है. मैं अपनी दुनिया में खुश  हूँ. यहाँ हजारों जाने-अनजाने लोग मुझे प्यार करते हैं. तुम एक प्रज्ञा की तिरिया-कर्म से क्यों परेशान हो रही हो? उसे सजा मिलेगी और जरूर मिलेगी..." मेरी बात सुन कर वह दूर कहीं देखने लगती और कोई जवाब नहीं देती.
                    वर्षों बाद, एक सन्देश मेरे ई-मेल पर आया- "पापा, आपकी राजो आ रही है...अब लन्दन में मुझे नहीं रहना....सदा के लिए भारत आ रही हूँ...मुझे खिचड़ी खाने का बहुत मन करता है. साथ में चटनी हो तो और अच्छा. और अगर साथ में, आलू का चोखा हो तो फिर से पुराने दिन लौट आयेंगे....."
          मैं सोचने लगा कि एक वक्त था, जब राजो किसी तरह अपने लिए दो रोटियों  का जुगाड़ कर पाती थी. अगर कुछ जुगाड़ न हो पाता तो पानी पी कर ही सो जाया करती थी. और आज जब उसके पास सब कुछ है, वह लन्दन छोड़ कर भारत आ रही है और खिचड़ी खा कर पुराने दिनों को याद करना चाहती है, उन दिनों को याद करना चाहती है, जो उसे दिल से रुलाते थे, सताते थे....आखिर क्यों? 
            रोजो को अक्सर भूखे रहना पड़ता था. लेकिन, वह कभी अपने भूखे होने की बात मुझको नहीं बताया करती थी. पर मैं उसका चेहरा पढना जान गया था. वह जब भी मेरे घर आती और कहती आज मैं दो घंटे आपसे पढूंगी, आपको मेरे लिए समय है, पापा? तो मैं उसके चेहरे से अंदाज लगा लेता कि वह भूखी है."....और मैं झूठ बोलता,"बेटे कल रात देर से सोया. सुबह देर से उठा. सो अभी तक खाना नहीं बनाया है. ऐसा करो कि खिचड़ी चढ़ा दो, दोनों बाप-बेटी आज खिचड़ी, चटनी और आलू का चोखा खायेंगे और पढना-पढ़ाना भी होगा." 
         मेरे ऐसा कहने पर वह मेरा भी चेहरा पढने की कोशिश करती. शायद, उसे लगता कि मैंने जान लिया है कि वह भूखी है. उसके शक को दूर करने के लिए मैं उसे कहता," बेटे राजो, तुम्हारा चेहरा कुछ भी नहीं बोलता है. तुम अपने दिल की बातों को दिल में ही कैद रखती हो. लेकिन, यह अच्छी बात नहीं है." वह मुस्कुरा देती और कहती," दिल में कोई बात हो तभी तो वह चेहरे पर दिखेगी, पापा?" मैं ठहाके लगता और वह मुस्कुरा देती अपनी  इस जीत पर कि उसने मुझे बहला दिया है.
         और जब वह खिचड़ी थाल में लेकर आती और कहती कि पहले आप खालें फिर मैं खाऊँगी, तो मुझको लगता इस छोटी सी उम्र में इस लड़की में ईश्वर ने कितना धैर्य दिया है. मैं जल्दी-जल्दी गरम खिचड़ी खाने लगता, जीभ जलने का डर-भय छोड़ कर, ताकि राजो जल्दी से खिचड़ी खा कर मेरे सामने संतुष्ट हो जाए. मैं खा लेता फिर भी वह अपने लिए खिचड़ी परोसने  में कोई जल्दीबाजी नहीं करती थी. 
       राजो लन्दन से आयी. उसमे कोई परिवर्तन नहीं हुआ था. दस साल बीतने का कोई खास चिन्ह उसके चेहरे पर नहीं थे. उसने आते ही चौका सम्हाल लिया और खिचड़ी तैयार हुई. हमने खिचड़ी का भोग लगाया.
       राजो  ने मुझसे कहा," पापा, मैंने यहाँ एक कंपनी खरीद ली है. आज मैं आपके साथ वहाँ जाउंगी. चलिए तैयार हो जाईये. मैं तैयार हो गया. घर से बाहर निकला तो देखा कि घर के आगे एक नीले रंग कि फोर्ड कार लगी है.
        " यह किसकी है? इसे यहाँ कौन खड़ी कर गया है?"
        " यह कार आपकी है पापा....आपकी...."
        मै राजो का मुह देखता रह गया. मैंने देखा कि सफ़ेद वर्दी में कार  का ड्राईवर कार के दरवाजे खोल  कर खड़ा है. मैं राजो के साथ उसकी  कंपनी चल पड़ा. कंपनी का भवन बहुत ही विशाल था. मुख्य दरवाजे से अंदर प्रवेश करते हुए, लाबी में हम दोनों पहुंचे. वहां रेसेप्सनिस्ट फोन पर बता रही थी," अरे यार, आज मेरी कम्पनी कि नई मालकिन आ रही है, रजनी सरदेसाई, उसकी स्वागत की तैयारी पूरी कर ली है. अब उनके पी.ए. से संपर्क कर उनके यहाँ आने की सूचना मांगने जा रही हूँ, सो बाय..बाय...और उसने पलट कर हम दोनों की ओर देखा और वह बोल पड़ी, "अरे तुम, राजो?"
        राजो ने कहा,"प्रज्ञाजी, राजो नहीं, रजनी सरदेसाई!"
             
       
           
   
          
          

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