गुरुवार, 27 जनवरी 2011

लेखक की संगनी

        

       " पापा ने मेरे लिए कुछ भी तो नहीं किया. मेरी जिन्दगी ख़राब कर दी." संजय का यह वाक्य जब भी मेरे कानों में पड़ता तो मेरी आत्मा अंदर से रो पड़ती.लेकिन,मैं तो असहाय हो गया था. पहले गरीबी के सामने असहाय था और अब बेटे के सामने.
          शायद, कुछ लोगों के जीवन में हर परिस्थिति में असहाय बना रहना  ही लिखा होता है. और जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि सिर्फ बेटा ही क्यों,अनेक लोगों ने मेरे साथ वही किया जो आज बेटा कर रहा है.
           ऐसे अवसादपूर्ण समय में मैं बीते दिनों की ओर बार-बार  भागने लगता हूँ.....मेरे घर में बड़ी दीदी का राज चलता था.वह जो चाहती थीं और जो कहती थीं, वह कानून बन जाता था. उन्होंने फैसला सुना दिया," राजू को अब आगे पढ़ने लायक नहीं है. यह तो कालेज का गुंडा बन गया है.आगे चल के न जाने क्या क्या गुल खिलाएगा.."और मेरी पढ़ाई बीच में ही रुक गई.किस्मत से मेरी हिंदी अच्छी थी सो सोचा कि चलो कुछ लिख पढ़ कर ही कमाने का जुगाड़ बैठाया जाए. सभी जानते हैं कि  कलम  से लक्ष्मी का सम्बन्ध नहीं है,और मेरा भी लक्ष्मी से सम्बन्ध नहीं बन पाया. किन्तु कलम में   ये ताकत है कि वह किसी सेवक को मरने नहीं देती.मुझे भी मरने नहीं दिया.कलम चलती रही और घर-परिवार भी किसी तरह चलता रहा.
        स्वयं भूखे रह जाता लेकिन, अपने बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था कर देता था.मैं अपने बच्चों के जीवन के लिए, अपने जीवन को भी दांव  पर लगा देता.कई बार तो मरते-मरते बचा लेकिन, यह मेरे बेटे को कैसे पाता होगा?मैंने तो कभी इसका जिक्र भी किसी से नहीं किया.मैंने तो अपने संघर्ष की कथा-कहानी अपने हृदय में ही सहेज कर रखी.आंसुओं को कभी पलकों से ढलकने नहीं दिया.लेकिन अब मेरे आँसु जब चाहते हैं, पलकों से ढलक जाते हैं. 
        रात हो गई थी. जेब खाली और जिसके घर पर रुकने  का इरादा था, उसके घर में ताला लगा हुआ था.अब क्या करूँ ? कहाँ जाऊं? लेकिन कहीं तो रात गुजरने की व्यवस्था तो करनी होगी? स्टेशन की ओर निकल पड़ा. सोचा की वहीँ रात बिताऊंगा. सारे गरीबों को स्टेशन आश्रय देती है, मुझे भी दे देगी. स्टेशन के बाहरी बरामदे में लेट गया.भूखे पेट नींद नहीं आ रही थी. उसी समय एक सिपाही ने अपने पैर से ठोकर मारते हुए उठाया," यहाँ क्या कर रहा है? क्या नाम है? "यह कर उसने मुझे खीँच कर उठाया और एक झन्नाटेदार थप्पड़  मार दी. लगा की अब बेहोश हो जाऊँगा. मैं सिपाही को हक्का-बक्का देखता रह गया. सिपाही मुझको खींच कर थाना ले गया और फिर मैं एक मुजरिम की तरह जेल पहुँच गया.जेल में एक  कैदी को मुझ पर दया आ गयी.उसने मुझसे कहा," तुम मत घबराओ कल तुम्हारा बेल भी हो जाएगा और तुम पर लगा इल्जाम भी ख़त्म हो जाएगा.मैं तो जेल से ही बैठ कर हुकूमत चलता हूँ.पता नहीं क्यों आज मुझको एक नेक काम करने का मन  कर गया है! मैं अभी वकील को खबर करता हूँ."
        तभी राउंड पर जेलर आया. उसने आते ही उस कैदी को सलाम लगाया," क्या हुकुम है, दादा? "
        " चंडी, मैंने तो तुमको किसी दूसर काम से बुलाया था, लेकिन एक अर्जेंट काम निकल आया है. यह लड़का बेचारा शरीफ है. पता नहीं क्यों आज इस शरीफ को मैं यहाँ से बाहर निकलने का मन बनाया है. जरा उस दारोगा  को बुला देना, जिसने इसे जेल भेज दिया है. उसे डांट दूंगा. और हाँ, मेरे वकील को बुला दो, वह इसके बेल का इंतजाम करेगा. और जेलर तुमको कोई कष्ट हो तो कहो."
         " मंत्री जी तो आपके हुक्म पर चलते हैं,सर.बस एक छोटा सा  मेरा काम करवा दीजिए."
        " अरे क्या काम है  बोल तो सही."
        " आप जब तक यहाँ हैं तब तक तो मैं यहाँ रहना चाहता हूँ. लेकिन, उसके बाद मेरा तबादला रांची के केन्द्रीय कारागार  में करवा दीजिएगा."
        " ऐसे ही साफ़ साफ़ बोला करो..... जा, तेरा काम हो जाएगा." 
        " थैंक्यू  सर, प्रणाम सर....."
        मैं उस कैदी को समझ नहीं पाया. पर इतना तो जरूर समझ गया कि वह एक बड़ी चीज है, जिसके सामने जेलर क्या मंत्री भी बौने हैं.
        जल्दी ही मैं जेल से बाहर आया. जिस दारोगा  ने मुझको जेल भेजा था वह जेल  के दरवाजे पर मिला और मुझसे क्षमा मांगने लगा. उसने अपनी गाड़ी से मुझको स्टेशन तक ला कर पटना का टिकट भी ले कर दिया और हाथ में जबरन पांच सौ रुपए भी रखा दिए  और बोला," दादा से जरूर कह देना कि मैंने तुमसे माफ़ी मांग ली है." फिर उसने मेरे सामने हाथ जोड़ दिए.
        पटना पहुँच कर मैं  इस अख़बार के दफ्तर से उस दफ्तर में चक्कर लगाने लगा. कहीं कोई काम मिल जाए. फिर शाश्त्री जी मिले और उन्होंने मुझसे समसामयिक विषयों पर लीख  लिखवाना शुरू कर दिया.वे मुझको कभी अपने घर बुला कर खाना-वाना भी खिला दिया करते थे तो कभी कुछ रुपए मेरी जेब में डाल दिया करते थे. मैंने एक लौज में रहना शुरू कर दिया था. लौज़ के संचालक राजपाल जी  एक बीहड़ व्यक्ति थे.जब देखो गोली-बारूद की बात किया करते थे,लेकिन मेरे वे साथ बड़े रहम दिल थे.और उस दिन तो वे बहुत खुश हुए जब मैंने उनको बताया कि मुझे नवीन भारत में रिपोर्टर की नौकरी मिल गयी है.
       राजपाल जी ने मुझको लौज़ में सिंगल बेड  वाला कमरा दे दिया और मेरे रूम के दरवाज़े पर मेरे ओहदे के साथ नेम-प्लेट लगवा दिया.....एक रात जब मैं सोया था तो मुझको लगा कि मेरे  कमरे के दरवाजे के नीचे जो बड़ा सा छेद था, उससे कुछ सामान तेजी से मेरे कमरे में डाला जा रहा है. मैंने जल्दी से उठ कर बल्ब जलाया. मैं तो सन्न रह गया.....मेरे कमरे में दस-बारह पिस्तौल, गोलियां, हथगोले पहुँच चुके थे. मैं क्या करूँ इस पर विचार कर ही रहा था कि मुझे राजपाल जी की तेज आवाज सुनाई दी," दारोगा जी आपने तो पूरे लौज़ को सर्च कर ही लिया,लेकिन आपको कुछ भी नहीं मिला. और रही बात इस कमरे   कि तो यह कमरा नवीन भारत के रिपोर्टर का है. बिना सर्च वारंट के उनके कमरे की तलाशी लेंगे तो दूसर दिन अखबार में यह बात आ जाएगी.चलिए यह हजार रुपए रखिये और दारोगा  जी और निश्चिन्त हो जाएं   कि यहाँ हम लोग यहाँ  कोई हथियार रखते हैं या कोई दो नम्बर का धंधा करते है..." 
          मुझको सारी बात समझ में आ गई थी सो दूसर ही दिन मैंने उस लौज़ से विदा ले ली. फिर मैंने शादी करने की भूल कर बैठ, यह जानते हुए भी कि मैं कभी भी अपने बाल-बच्चों का भरण-पोषण सत्यवादी बन कर नहीं कर सकता. एक बच्चे  का बाप भी बन गया. उसकी जरूरतें  ही मेरी जरूरतें  बन गई थीं. किन्तु  उनकी जरूतों को पूरा करना आसान नहीं था.हाथ में जो वेतन का पैसा आता, वह कपूर की तरह गायब हो जाता. हर एक महीने का गुजरना, मैं  ईश्वर की कृपा मानता. सच्चाई  के साथ मैं पैसे कमाने का जितना भी प्रयास करता कोई लाभ नहीं मिलता. कुछ अतिरिक्त कमाने के लिए पत्रिकाओं में कहानियां लिखने लगा. आमदनी तो कुछ बढ़ी लेकिन खर्च तो उससे भी तेज  गति से बढ़ता  जाता. आमदनी और खर्च के बीच मैं  पेंडुलम बन कर रह गया था. उसी समय सच के शत्रुओं के कारण मुझे अखबार की सेवा से मुक्त कर दिया गया. हार अखबार में खबर फेल गई कि इस आधुनिक कबीर को सेवा में रखना अपने पैरों  पर कुल्हाड़ी  मारने के बराबर है.मैं फिर सड़क पर आ गया था. दो बच्चों का भविष्य की सोचना तो दूर की बात थी यहाँ तो पेट भरने का सवाल ही सुलझाना मुश्किल हो गया था. 
       मेरी कलम के सामने चुनौती थी, कुछ कर गुजरे की. मैंने कलम उठा ली और चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हो गया था. हर दूसर दिन एक कहानी मुझे लिखनी ही थी.
       हर सुबह  मैं सड़कों पर निकल पड़ता.अनजान लोगों से मिलता जुलता. उनके अंदर झांकता. आस पास के गाँव को पढ़ता. गाँव के लोगों को पढ़ता. रात मेरी कहानिया लिखते हुए गुजरते. मेरे जानने वाले लोग मुझे पागल कहते. शहर के सारे विवादित लोग मुझे विवादित कह कर पुकारते. मैं सभी विवादित व्यक्तियों का अकेला दुश्मन था. हर एक मेरा शिकार करना चाहता था. और पता नहीं ईश्वर ने मुझे किस माती से बनाया था कि मैं किसी का शिकार नहीं हो पाया. 
      वक्त बदला. मैंने फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाते हुए एक छोटा सा व्यवसाय शुरू किया. कलम और व्यवसाय की जोड़ी बन गई. माली हालत कुछ सुधरी. संजय को अच्छी शिक्षा देने की कोशिश की. लेकिन मैं उसे अच्छी शिक्षा नहीं दे पाया. शायद मैं उसमें शिक्षा के प्रति लगन ही नहीं जगा पाया. और फिर उसने मेरे सामने मुंह खोलना शुरू कर दिया. उबलना शुरू कर दिया.
      आज मैं संजय के साथ नहीं हूँ. बिल्कुल अकेला अपने बुढ़ापे से जूझ रहा हूँ. बेटे के साथ न होने का कोई गम नहीं है. मेरे साथ मेरी कलम है. इसी कलम के साथ मैं अपने सुख दुःख बाँट लेता हूँ. यही मेरी संगनी है. एक लेखक की संगनी.          
         

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