गुरुवार, 16 जून 2011

कामदेव

                                                                         स्वामी कामदेव

*दिलीप कुमार तेतरवे

             " क्या बात  है जो तुम इतने खुश हो?"
             "मेरी जेब गरम है!"
             "वेतन मिला क्या?"
             "अरे, मैं तो वेतन  सीधे बैंक में जमा  कर देता हूँ. वेतन से क्या होने वाला है?"
               सचिन की बात सुन कर मैं तो दंग रह गया. लेकिन, आज यही तो जीवन का उद्देश्य है. मैं सोचने लगा कि कहीं सचिन भी आगे चल कर कुणाल की तरह सन्यासी न बन जाये! मुझे कुणाल  याद आने लगा. वह मेरे साथ पढता था. पढता क्या था, स्कूल में तो वह बस लम्पटई करने ही आता था.... वह योग के क्लास करने लगा. मैंने उससे पूछा," अरे कुणाल, अचानक तू योग क्यों सीखने लगा? सन्यासी बनने का इरादा है क्या?" 
               कुणाल ने ठहाका लगाते हुए कहा,"यार, योग के क्लास में कई लड़कियों ने दाखिला लिया है. बस, मैंने भी ले लिया. इसी बहाने सुंदरियों  के साथ गपियाने का मौका मिल जाता है.  वह रश्मि है न, क्या कहूँ बहुत ही  सुन्दर है. मैं तो  उसे योग करते देखना चाहता था. बस, योग के क्लास में  मैं उसे देखता रहता हूँ ."         
               समय बड़ी तेजी से बीता. मैंने पचास की उम्र पार कर ली. पत्नी सुनंदा को तीर्थ करने का मन था और बनारस जा कर किसी सन्यासी से गुरु दीक्षा भी लेने का  इरादा  था. हम दोनों ही बड़े धार्मिक विचारधारा वाले थे. सो हम दोनों बनारस पहुंचे.        
              मैं और सुनंदा असी घाट पर  टहल रहे थे. अचानक सैकड़ों  भगवाधारी सड़क की और से घाट की और आते दिखे. भगवाधारियों के बीच   गोरा सा एक सन्यासी था.  मुझे उसकी सूरत कुणाल से बिलकुल मिलती जुलती लगी. जब वह मेरे पास से गुजर रहा था तो मैंने उसे गौर से देखने की कोशिश की. उस सन्यासी ने भी मुझे  देखा और हुए बोला ," अरे सत्यप्रकाश, यूं आँखे फाड़ कर क्या देख रहे हो?. मैं हू  स्वामी कामदेव. जिसे कभी तुम्हारे जैसे दोस्त  कुणाल  कह कर पुकारा करते थे....कहो शिव की नगरी बनारस में क्या कर रहे हो?"

             "मैं  एक गुरु की तलाश में आया हूँ."
             "अरे तुम तो क्लास के गुरु थे और अब तुम गुरु की तलाश  कर रहे हो! खैर, कहाँ ठहरे हो ?"
             "अघोरिया धर्मशाला में."
             "अरे मेरा आश्रम है ." यह कह कर उसने एक सूटेड-बूटेड आदमी से कहा,"रामकृष्णन,  सत्यप्रकाश  जी और  भाभी जी को  आश्रम में ठहरा दो." फिर उसने मुझे कहा,"सत्यप्रकाश, मेरे महासचिव  रामकृष्णन के साथ जाओ. तुम मेरा इंतजार आश्रम में करना."
           जब मैं आश्रम पहुंचा तो मैं हैरान रह गया. आश्रम को देख कर." मेरी पत्नी सुनंदा ने कहा," यह आश्रम  है या राजा  का महल....या फाइव स्टार होटल?"
           आश्रम के सेवकों ने हम दोनों को तुरत ही एक सुंदर से सूट में पहुंचा दिया. एक सेविका ने  मेरे खाने की पसंद पूछी और जाते-जाते सूचित कर गयी ," आपके लिए कैब बुक है और ये हैं पचास हजार रुपए, आप चाहें तो भाभी जी के साथ जा कर मार्केटिंग कर सकते हैं."
         मैं और सुनंदा तो इस नए ज़माने के स्वामी की  दरियादिली को देख कर आश्चर्य में  थे.
         देर रात स्वामी कामदेव ने मुझे अपने कमरे में बुलाया. स्वामी के कमरे का वैभव देख कर मुझे लगा कि जैसे  मैं इंद्र के शयन कक्ष  में पहुँच गया होऊं.
          "आओ सत्यप्रकाश, आओ...." स्वामी ने चहकते हुए कहा
          "इतनी रात गए तुम वापस लौटे हो?" मैंने पूछा.
          "अरे यार, आज तो जरा जल्दी आ गया हूँ. आज मेरी कंपनी की मीटिंग थी. अभी यह  दो हजार  करोड़ की कंपनी है और मैं इसे इसी साल पांच हजार करोड़ की कंपनी में बदलना चाहता हूँ." तभी एक सेविका ने उसकी और मोबाइल बढ़ाते हुए कहा,"स्वामी जी, मारीशस से  कंपनी सर का फोन है."
              कंपनी सर  का नाम सुनते ही मैं तो सकते में आ गया. यह तो एक बड़े हवाला कारोबारी  का नाम था. लेकिन, स्वामी ने मोबाइल पर अपनी बात ठहाका लगते शुरू की," अरे यार, मुझे तीन हजार करोड़ चाहिए. ऐसी सेटिंग  के साथ मेरी  स्वामी हर्बल कम्पनी के खाते में रूपये भेजो कि लगे कि कंपनी ने असली कमाई की है. तुम मेरे लेखापाल से   और चार्टर्ड एकाउंटेंट  से मिल लेना. ओके "
            कंपनी सर से बात समाप्त करने के बाद स्वामी मुझसे बतियाने लगा. पूछने लगा कि मैं क्या कर रहा हूँ..मेरे बाल-बच्चे क्या कर रहे हैं. लेकिन तभी एक सेविका ने उसकी ओर  मोबाइल बढ़ाते हुए कहा," नागपुरवाले नेता जी का फोन है." स्वामी ने नेताजी से बात शुरू की-
           " नमस्कार जी, मैं इस सरकार को उलट दूंगा,  बस आप मेरा साथ दें...यह सरकार, मेरी  संपत्ति  की जांच कर रही है."          
           "अरे स्वामी जी, हम आपको खुला समर्थन देंगे. आप योजना पर काम तो शुरू कीजिए. हमें तो सरकार ही नहीं यह संविधान भी बदलना है."
           "हाँ जी, मैं भी यही चाहता हूँ. मैं चाहता हूँ कि हर चौराहे पर नत्थू की प्रतिमाएं लगायी जाएँ. आधी धोती वाले  की प्रतिमाएं, मैं  बर्दाश्त नहीं कर पाता हूँ."
         
          " जी, आपकी कमाना पूर्ण होगी.".......

           मैं कामदेव से विदा लेना चाहता था, लेकिन तभी उसने सेविका से कहा, " अब कोई फोन नहीं रिसीव करूंगा. मुझे अपने मित्र से बातचीत करनी है."        
           उसने मेरी और देखते  हुए कहा ," यार,  मेरे साथ काम करो. मुझे कुछ भरोसे वाले साथी चाहिए. तुम पैसे की चिंता नहीं करना. प्रति वर्ष दस लाख  दूंगा, कहो स्वीकार है?"
            मैं तुमको अपनी राय  कल बताऊंगा."
            दूसरे दिन, मैं अपनी पत्नी के साथ सुबह ही आश्रम से निकल गया और जाते हुए एक लिफाफा कामदेव बाबा के लिए छोड़ दिया. लिफाफे में उसके दिए पचास हजार रूपये, एक पत्र और पांच हजार रूपये का चेक  डाल  दिया था. पत्र में मैंने लिखा था-प्रिय कुणाल, मैं तो बनारस  गुरु की तलाश में आया था. लेकिन अब मेरा फैसला है कि  मैं अपने जीवन में कभी  गुरु तलाशने की  कोशिश नहीं करूंगा!"
                                                                                                          *

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